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वृहज्जैनवाणी संग्रह
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समुझायौ समुझ्यौ न त्यौं । मिध्यात्वजुत च्युत कुंगति पाई, लहै फिर सो स्वपद क्यों । यों चिर भव-अटवी गाही, किंचितसाता न लहाही | जिनकथित घरम नहिं जान्यो, परमाहिं अपनपो मान्यो || मान्यो न सम्यक त्रयातम आतम अनातम मैं फस्यो । मिथ्याचरन हग्ज्ञान रंज्यौ, जाय नवग्रीवक बस्यो । पै लह्यो नहिं जिनकथित शिवमग, वृथा भ्रम भूल्यो जिया । चिदभाव के दरसावविन सब गये अहले तप किया ||१०|| अब अद्भुत पुण्य उपायो, कुल जात विमल तू पायो । यातें सुन सीख सयाने, विषयनसों रति मत ठाने || ठाने कहा रति विषय में ये, विषम विषधरसम लखो। यह देह मरत अनंत इनकों, त्यागि आतमरस चखो || या रसरसिकजन बसे शिव अब, बसें पुनि बसि सही । 'दौलत' स्वरचि परविरचि सतगुरु, सीख नित उर धर यही ।।
२३६ - जकडी रामकृष्णकृत ।
अरहंतचरन चित लाऊं । पुन सिद्ध शिवकर ध्याऊं ॥ बंद जिनमुद्राधारी । निर्ग्रथ यती अविकारी ॥ अविकार करुणावंत चंदौं, सकललोकशिरोमणी । सर्वज्ञभाषित धर्म प्रणयूं, देय सुख संपति घनी । ये परममंगल, चार जगमें, चारु लोकोत्तम सही । भवभ्रमत इस असहाय जियको, और रक्षक कोउ नहीं ॥१॥ मिथ्यात्व महारिपु दंड्यो । चिरकाल चतुर्गति हंड्यो | उपयोग-नयन-गुन खोयौ । भरि नींद निगोदे