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________________ K AKASHNER-STAR वृहज्जैनवाणीसंग्रह ४४१ । नीति विचार नियोगी सुतकों, राज दियो बड़भागी ॥१५॥ होय निशल्य अनेक नृपति सँग, भूषण वसन उतारे। श्री* गुरु चरनधरी जिनमुद्रा, पंच महाव्रत धारे ॥ धनि यह । समझ सुबुद्धि जगोत्तम, धनि यह धीरजधारी । ऐसी संपति। छोड़ बसे बन, तिन पद धोक हमारी ॥१६॥ दोहा-परिगहपोट उतार सब, लीनो चारित पंथ ।। निज स्वभावमें थिर भये, वज्रनामि निरग्रंथ ॥ २३०-सोलह कारण भावना।। व चौपाई-आठदोषमद आठ मलीन, छह अनायतन * शठता तीन । ये पचीस मल वर्जित होय, दर्शविशुद्धि* भावना सोय ॥१॥ रत्नत्रयधारी मुनिराय, दर्शनज्ञान चरित समुदाय । इनकी विनय विषै परवीन, दुतिय १ भावना सो अमलीन ॥२॥ शीलधारि धारै समचेत, सहस । अठारह अंग समेत । अतीचार नहिं लागै जहां, दृतिय * भावना कहिये तहां ॥३॥ आगमकथित अरथ अवचार, । यथाशक्ति निजबुधि अनुसार । करै निरंतर ज्ञान अभ्यास। * तुरिय भावना कहिये तास॥४॥ । दोहा-धर्म धर्मके फलविष, परतें प्रीति विशेख। यही मावना पंचमी, लिखी जिनागम देख ॥५॥ चौपाई-औषधि अभय ज्ञान आहार, महादान ये चार प्रकार । शक्ति समान सदा निर्वहै, छठी भावना
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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