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* ४४० बृहज्जैनवाणीसंग्रह
अंतर देखत या सम जगमें अवर अपावनको है ।। नवमलके द्वार स्वबै निशिवासर, नाम लिये धिन आवै । व्याधि उपाधि
अनेक जहां तहँ, कौन सुधी सुख पावै ॥९॥ पोषत तो दुख । । दोष करै अति,सोषत सुख उपजावै । दुर्जनदेहस्वभाव बरावर,
मूरख प्रीति वढावै ॥राचनजोग स्वरूपन याको विरचनजोग! के सही है । यह तन पाय महातप कीजै या सार यही है ।
॥१०॥ भोग बुरे भवरोग बढ़ा, वैरी है जग जीके वेस। होय विपाक समय अति, सेवत लागें नीके || बज्रअगिनि विषसे विषधरसे, ये अधिके दुखदाई । धर्मरतनके चोर चपल ।
अति, दुर्गतिपथ सहाई ॥११॥ मोहउदय यह जीव अज्ञानी, * भोग भले कर जाने । ज्यों ज्यों भोग सँजोग मनोहर, मन
बांछित जन पाचै । तृष्णा नागिन त्यों त्यों डकै, लहर * जहरकी आवै ॥१२॥ मैं चक्रीपद पाय निरंतर, भोगे भोग
घनेरे । तौ भी तनक भये नहिँ पूरन, भोग मनोरथ मेरे॥ राजसमाज महा अधकारन, वैरबढ़ावनहारा । वेश्यासम में लछमी अति चंचल, याका कौन पत्यारा ॥१३।। मोहमहारिपु वैर विचारयो, जगजिय संकट डारे । घरकाराग्रह पनिता वेडी परिजन जन रखवारे । सम्यकदर्शन ज्ञानचरन तप, ये जियके हितकारी । येही सार असार और सब, यह चक्री चितधारी ॥११॥ छोडे चौदह रत्न नवों निधि, अरु छोडे सँग साथी । कोडि अठारह घोड़े छोड़े, चौरासी लख हाथी॥ इत्यादिक संपति बहुतेरी, जीरण तृणसम त्यागी।।