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वृहज्जैनवाणीसंग्रह । ४३६ । कलोचन अलि आनंदे॥२॥ तीन प्रदक्षिण दे शिर नायो, कर
पूजा थुति कीनी । साधुसमीप विनय कर बैठ्यो चरननमैं । दिठि दीनी ॥ गुरु उपदेश्यो धर्मशिरोमणि, सुन राजा वै॥
रागे। राजरमा वनितादिक जे रस, ते रस बेरस लागे ॥३॥ * मुनिसूरजकथनीकिरणावलि, लगत भरम बुधि भागी। भव
तनभोगस्वरूप विचारयो, परम धरम अनुरागी । इह संसार महावन भीतर, भ्रमते ओर न आवै । जामन मरण जरा दो। दाझै जीव महादुख पावै ॥४॥ कबहूं जाय नरक थिति भुजै,
छेदन भेदन भारी। करहूं पशु परजाय धरै तहँ, वध बंधन। * भयकारी ॥ सुरगतिमैं परसंपति देखे राग उदय दुख होई ।।
मानुषयोनि अनेक विपतिमय, सर्व सुखी नहिं कोई ॥५॥ कोइ इष्ट वियोगी विलखै, कोइ अनिष्ट सँयोगी। कोइ दीन ।
दरिद्रि विगूचे, कोई तनके रोगी ।। किसही घर कलिहारी। । नारी कै बैरी सम भाई । किसहाके दुख बाहिर दीखे, किस। * ही उर दुचिताई ॥६॥ कोई पुत्र विना नित झूरै, होइ मरै तब * रोवै । खोटी सततिसों दुख उपजै, क्यों पानी सुख सोवै ॥
पुन्य उदय जिनके तिनके भी नाहिं सदा सुख साता। यह * जगवास जथारथ देखे, सब दीखै दुखदाता ॥७॥ जो संसार
विषे सुख होता, तीर्थकर क्यों त्याग । काहेको शिवसाधन । * करते, संजमसों अनुरागै ।। देह अपावन अथिर घिनावन, * यामैं सार न कोई । सागरके जलसों शुचि कीजै, तो भी शुद्ध
न होई ॥८॥ सात कुधातुमरी मलमूरत चाम लपेटी सोहै। ।