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________________ वृहज्जैनवाणीसंग्रह ३५३" मधुरत लेकर अति सोहने || वरपद्म० || फलं ॥ जल गंध आदि मिलाय वसुविध थार स्वर्ण भरायकै । मन प्रमुद भाव उपाय कर ले आय अर्घ बनायकै ॥ वरपद्म || अर्घ ||९|| अथ जयमाला | दोहा - चरम तीर्थकरतार श्री, वर्द्धमान जगपाल । कलमलदलविधविकल है, गाऊँ तिन जयमाल ॥ पद्धरीछंद - जय जय सुवीर जिन मुक्तिथान | पावापुरवनसर शोभवान || जे सित अषाढ छठ स्वर्गधाम । तज पुष्पोत्तर सुविमान ठाम ||१|| कुण्डलपुर सिद्धारथ नृपेश । आये त्रिशला जननी उरेश | शित चैत्र त्रियोदशि युत त्रिज्ञान । जनमे तम अज्ञ-निवार भान ||२|| पूर्वाह्न धवल चउदिश दिनेश । किय नह्वन कनकगिरि - शिर सुरेश ॥ वय वर्ष तीस पद कुमरकाल | सुख दिव्य भोग भुगतेविशाल ||३|| मारगसिर अलि दशमी पवित्र । चढ़ चंद्रप्रभा शिविका विचित्र || चलि पुरसों सिद्धन शीशनाय । धान्यो संजय वर शर्मदाय ||४|| गतवर्ष दुदश कर तप विधान | दिन शित वैशाख दशै महान || रिजुकूला सरिता तट स्व सोध । उपजायो जिनवर चरम बोध ||५|| तब ही हरि आज्ञा शिर चढाय | रचि समवसरण वर धनदराय || चउसंघ प्रभृति गौतम गनेश । युत तीस वरष विहरे जिनेश || ६ || भविजीवदेशना विविध देत | आये वर पावानगर खेत ॥ कार्तिक अलि अन्तिस दिवस ईश | कर योग निरोध अघातिपीस ॥ ज०
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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