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________________ * K-RRRRRअर- 5 वृहज्जैनवाणीसंग्रह * ॥ ६ ॥ ज्यों फाटक टेकत पाय खुला, औ सांप सुमन कर। . डारा है। ज्यों खड्ग कुसुमका माल किया, बालकका जहर उतारा है । ज्यों सेठ विपत चकचूरि पूर, घर लक्ष्मीसुख । । विस्तारा है । त्यों मेरा संकट दूर करो प्रभु, मोकू आस * तुमारा है ॥श्री० ॥१०॥ यद्यपि तुमको रागादि नहीं, यह सत्य सर्वथा जाना है। चिनमूरति आप अनंतगुनी, नित । शुद्धदंशा शिवथाना है ॥ तद्दपि भक्तनकी भीति हरो, सुख * देत तिन्हे जु सुहाना है। यह शक्ति अचिंत तुम्हारी का, । क्या पावै पार सयाना है ॥श्री० ॥११॥ दुखखंडन श्रीसुख मंडनका, तुमरा मन परम प्रमाना है । वरदान दया जस * कीरतका, तिहुँलोकधुजा फहराना है, कमलाकरजी! * कमलाकरजी ! करिये कमला अमलाना है। अब मेरि विथा । * अवलोकि रमापति, रंच न बार लगाना है ॥श्री० ॥१२॥ हो दीननाथ अनाथहित, जन दीन अनाथ पुकारी है। उद* यागत कर्मविपाक हलाहल, मोह विथा विस्तारी है। ज्यों * आप और भवि जीवनकी, ततकाल विथा निरवारी है। । त्यों 'वृंदावन' यह अर्ज करै। प्रभु आज हमारी बारी है ॥१३॥ ३७-अरहतस्तुति । दोहा-जासु धर्मपरभावसों, संकट कटत अनंत । मंगलमूरति देव सो, जैवतो अरहंत ॥ १॥ .. हे करुणानिधि सुजनको, कष्टविषै लखि लेत। तजि विलंब दुख नष्ट किय, अब विलंब किह हेत ॥२॥ । पदपद-तब विलंब नहिं कियो, दियो नमिको रजताचल।।
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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