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४०८ वृहज्जैनवाणीसंग्रह। है तोहि । तन क्लेश पीला होहि । व्यापारमें धनहान । परदेश सिद्धि न जान ॥ ३३॥ तिहि हेत कर भविजीव ।। जिन जजन भजन सदीव । जप दान होम समाज । तब । होइ कछु इक काज ।। ३४ ॥ * अहंत । अक्षर अहंत परै । तब सकल शुभ विस्तरै ।। * कल्याणमंगल धाम । सुत भ्रमत मिलहि मुदाम ॥ ३५ ॥ • उद्यम विष धन धान्य । संपतिसमागम मान्य। रनके विर्षे ।
सब जीत । तोहि लाभ निश्चय मीत ॥ ३६ ॥ अरु होय ।
बन्दीमोच्छ । निरवाध है यह पच्छ । तुव है मनोरथ सिद्ध ।। । मति मान संशय वृद्ध ॥ ३७॥ है अता । अह अतअ भाषत वरन । कल्याणमंगलकरन ।
उद्यममें श्री विस्तरन । सब विघ्नग्रहमयहरन ॥ ३८॥" सुतपौत्रलाभ निहार। वांछित मिले मनिहार । दिन आठवे । कछु तोहि । कछु श्रेष्ठ भावी होइ ॥ ३९ ॥ ___ अतर । जो अतर अक्षर ढरै । तो सकल मंगल करै । वाजिन सदन सुनाय । घरमाहिं अनँद वधाय ॥४०॥ प्रियवन्धुचिन्ता होहि। तसु मोद मंगल होहि ॥ धनधान्यसंजुत होय । घर शीघ्र आवै सोय ॥ ४१ ॥ गजवाजि रथारूढ । । भूपन वसनजुत पूढ़ । संयुत अमित कल्यान । निरभै * मिलै भयमान || ४२॥ । अतहं । अतहं ढरै जो अंक। सो अशुभ कहत निशंक ।।
नहिं लाभ दीखत भाय । धन हाथहू को जाय ॥ १३॥