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________________ MrvAvMVPNAINA बृहज्जैनवाणीसंग्रह ४०७३ + हुवै घरमाहिं । तसु रंच ही भयं नाहिं । निज इष्ट पूजहु जाय । सब विघन जांय नसाय ॥२२॥ मन सोच तजि थिर होहि । आनन्द मंगल तोहि । सब सिद्ध है है काज । अरह कहत महाराज ॥२३॥ ___ अरत । जब अरत पासा हरै। तब सकल सुख विस्तरै। तोहि तिया प्रापति होय । सुत होय पौत्रपि होय ॥२४॥ कुलतोत सब सोभंत । तब भाल तिलक लसंत । जहं जाहुगे। तुम भीत । तहं लहहु पूजा नीत ।। २५ ।। जनमध्य हो तुमकेम । ताराविर्षे शशि जेम। यह रुचिर प्रश्न सुजान। मनमें धरो प्रभु ध्यान ॥२६॥ अहंअ । जो अहंअ छबि देय । तो सुनहु पूछक भेय । । पहिले कछुक दुख होय । फिर नाश है है सोय ॥५७॥ धनलाभ दिन दिन बढे । अरु सुजनसंगम चढ़े। जो । काम चिन्तहु वृद्ध । सो सकल है है सिद्ध ॥२८॥ , अहंर । जब अंहर सु दरसाय । तब अरथलाम कराय । जस लाभ पृथ्वीलाम । यह देख परत सुसाम (?) ॥२९॥ राजादि बन्धूवर्ग । सब करहि आदर सर्ग। भ्रातादि इष्टमिलाप। धनधान्य आगम व्याप ॥३०॥ ब्यवहार अरु परदेस । सब ओर उत्तम तेस। सब सोच संशय हरहु ।। * शुभ तुमहिं धीरज धरहु ॥ ३१ ॥ + अहंहं । जो अहंहं है अंक ।सो कहत हैं फल बंक । दीखे । न कारज सिद्ध । यह काज तोर सुबुद्ध ।।३२।। धन नाश है।
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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