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________________ वृहज्जैनवाणीसंग्रह ३४३ दुखहारण सुख कीजै । यह अरज हहारी सुनिं त्रिपुरारी शिवपदभारी मो दीजै ॥ wwwwww. छंद - यह दर्शनकूट अनंतलह्यो । फलपोडशकोटि उप सकह्यो || जगमें यह तीर्थ को भारी । दर्शन करि पाप करें सारी ॥ मोतीदामछंद - टरें गति बंदत नर्क तिर्यच । कबहुँ दुखको नहि पावै रंच || यही शिवको जगमें है द्वार । अरे नर बंदौ कहत 'वार' | दोहा - पारशप्रभुके नामतै, विधन दूरि टरि जाय । . ऋद्धि सिद्धि निधि तासको, मिलि है निसिदिन आय ॥ ओं ह्रीं श्रोसम्मेदशिखरसिद्धक्षेत्र सुवर्णकूटर्ते श्रीपार्श्वनाथादिमुनि वियासी करोड़ चुरासीलाखपैंतालिस हजारसातसौवियालोससिद्धपदप्राप्तभ्यः सिद्धक्षेत्रेभ्यो अ० ॥ २१ ॥ अडिल्ल - जे नर परम सुभावनतें पूजा करें। हरि हलि चक्री होंय राज्य षटखंड करै ।। फेरि होय धरणेंद्र इंद्रपदवी धेरै । नानाविधि सुख भोगि बहुरि शिवतिय वरै ।। इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत् ) १२५ - श्रीगिरनारक्षेत्र पूजा दोहा - चंदौं नेमि जिनेश पद, नेमि- धर्म - दातार । नेमधुरंधर परम गुरु, भविजन सुख कर्तार ॥१॥ जिनवाणीको प्रणमिकर, गुरु गणधर, उरधार । सिद्धक्षेत्र पूजा रचौं, सब जीवन हितकार ||
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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