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________________ -*- *-* १३३४ *25AR वृहज्जैनवाणीसग्रह तिनप्रति अर्थ चढावहूं, जनम मरण दुखजाय ॥ त्रिमलदेव निरमल करण, सब जीवन सुखदाय। मोतीसुत वंदत चरण, हाथ जोर शिरनाय ॥१२॥ ।ओं ह्रीं श्रीसम्मेदशिखरसिद्धक्षेत्रसुवोरकुलकूटते श्रीविमलनाथजिनेंद्र । S आदमुनि सत्तरकोडि सातलाख छहहजार सातसौन्यालीस सिद्धपदप्रा* प्तेभ्यः सिद्धक्षेत्रेभ्यो अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥१२॥ ... नं० १३ अनंतनाथ स्वयंभूकूट । अडिल्ल। - कूट स्वयंभू नाम परमं सुंदर कह्यो । प्रभु अनंत जिननाथ जहां शिवपद लह्यो ॥ मुनि जु कोडाकोडि छयानवे । जानिये । सत्तर कोडि जु सत्तरलाख प्रमानिये ॥ सत्तर सहस.. जुआर मुनीश्वर गाइये । सात सतक ता ऊपर तिनको ध्याइये। मैं जवाहरलाल सुनो मनलायकै । गिरिवरकों नित । पूजो अति सुखपायकैं॥ सोरठा--पूजत विधन पलाय, ऋद्धिसिद्धि आनंद करै । : सुरशिवको सुखदाय, जो मनवचपूजा करै ।। ३॥ को ही श्री सम्मेदशिखरसिद्धक्षेत्रस्वयंभूकूटते अनंतनाथजिनेन्द्रादिमुनि । । छयानवेकोडाकोड़ी सत्तरकोडि सत्तरलाख सत्तरहजार सातसौ सिद्धपद प्राप्तेभ्यः सिद्धक्षेत्रेभ्यो अर्घ निर्बपामीति स्वाहा ।।१३।। ... . ० १८ धर्मनाथ सुदत्तकूट । चौपाई । * : कूट सुदत्त महाशुभ जान। श्रीजिनधर्मनाथको थान ॥ * मुनि कोडकोडी उनईस। और कहे ऋषि कोडि उनीश ॥ लाख जु नव नवसहस सुजान । सात शतक पंचावन मान |
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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