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________________ *HH KH-KS-6- 6---- ---- वृहज्जैनवाणीसंग्रह मुनि अठारह कोडाकोडिन्यालीसकोडि बत्तीसलाख न्यालीसहजार नौसौ । * पांच सिद्धपदप्राप्तेभ्यः सिद्धक्षेत्रेभ्यो अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥ १०॥ नं. ६ श्रेयांसनाथ संकुललूट । जोगीरासा। * कूट जु संकुल परममनोहर, श्रीश्रेयान् जिनराई । कर्म नाशकर शिवपुर पहुंचे, वंदौं मनवच काई ॥ छयानव * कोडाकोडि जानो, छयानवकोडि प्रमानो ॥ लाख छयानवे । सहस मुनीश्वर, साढे नव अब जानो ॥ ता ऊपर व्यालीस। के कहे हैं श्रीमुनिके गुण गावें ॥ त्रिविधयोग करि जो कोह । पूजै, सहजानंद तहँ पावै ॥ सिद्ध नमों सुखदायक जगमें, * आनंदमंगलदाई। जजों भावसों चरण जिनेश्वर, हाथजोड शिरनाई। परम मनोहर थान सु पावन, देखत विधन पलाई ॥ तीन काल नित नमत जवाहर मेटो भवभटकाई ।। जहँ जे मुनि सिद्ध भये हैं, तिनको शरण गहाई । जापद को तुम प्राप्त भए हो, सो पद देहु मिलाई ॥११॥ * ओं ही श्रीसम्मेदशिखरसिद्धक्षेत्रसंकुलकूटते श्रीश्रेयांसनाथजिन्द्रादि* मुनि छयानवे कोडाकोडी छयानवेकोड़ि छयानवेलाख नवहजार पांचसोक वियालिस सिद्धपदप्राप्तेभ्यः सिद्धक्षेत्रेभ्यो अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। नं० २विमलनाथ सुवीरकलूट । कुसुमलता छंद। ___ श्रीसुवीरकुलकूट परम सुंदर सुखदाई, विमलनाथ भग-1 । वान जहां पचमगति पाई। कोडि सु सत्तर सातलाख पट सहस जुगाई, सात सतक मुनि और वियालिस जानो भाई। दोहा-अष्टकर्मको नष्टकर मुनि अष्टमछिति पाय । .... *- - * *
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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