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________________ XRAKARKETARRRR MAA ३४४ वृहज्जैनवाणीसंग्रह 1. उर्जयंत गिरिनाम तस, कह्यो जगत विख्यात । गिरिनारी तासों कहत, देखत मन हर्षात ॥३॥ है द्रुतविलंबित तथा सुन्दरी छंद-गिरिसुउन्नत सुभगाकार । है। पंचकूट उत्तंग सुधार है ।। वन मनोहर शिला सुहावनी।। * लखत सुंदर मनको भावनी ॥ अवर कूट अनेक वने तहां! । सिद्ध थान सु अति सुंदर जहां। देखि भविजन मन हर्षावते ।। * सकल जन वंदनको आवते ॥५॥ त्रिंभगी छंद-तहँ नेमकुमारा व्रत तप धारा कर्म विदारा, ! शिव पाई । मुनि कोडि बहत्तर सात शतक धर तागिरिऊपर । । सुखदाई।।द्वै शिवपुरवासी गुणके राशी विधिथिति नाशी ऋद्धि धरा । तिनके गुणगाऊं पूज रचाऊ मन हर्षाऊ सिद्धिकरा ! दोहा-ऐसे क्षेत्र महान तिहिं, पूजों मन वच काय । थापना त्रयवार कर, तिष्ठ तिष्ठ इत आय ॥ ओं ह्रीं श्रीगिरनासिद्धक्षेत्र अत्र अवतर अवतर । संवौषट् । ओं ही श्रीगिरनारसिद्धक्षेत्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ। 3 । *ओं ह्रीं श्रीगिरनारसिद्धक्षेत्र अत्र मम सन्निहितो भव भव । वषट् । अष्टक कवित्त लेकर नीर सुक्षीरसमान महा सुखदान सुप्रासुक लाई । दे। त्रय धार जजों चरणा हग्ना मम जन्म जरा दुखदाई। नेमि-1 *पती तज राजमती भये बालयती तहत शिवपाई । कोडि वहत्तरि सातसौ सिद्ध मुनीश भये सु जजों हरपाई ॥१॥ मों ही श्रीगिरनारिसिद्धक्षेत्रेभ्यो जलं निवपामीति स्वाहा ॥१॥
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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