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________________ वृहज्जैनवाणीसंग्रह ४७३ आय । गर्भ-सोधना कीनी जाय ||२३|| रत्नवृष्टि नृप आंगन भई । पंद्रह मास लों बरसत गई || सर्वार्थसिद्धिसों सुर आय । परजावती कुक्ष उपजाय ||२४|| मल्लिनाथ शुभ नाम जु पाय । द्वैजचंद्रसम बढ़त सुभाय || जब विवाह मंगलविधि भई । तब प्रभु चित विरागता लई ||२५|| दीक्षा घर बनमै प्रभु गये । घातिकर्म हनि निर्मल ठये || केवल 1 ले निर्वाण सुजाय । पूजा करी सुरन सब आय || २६॥ यह विधान श्रेणिकने सुन्यो । व्रत लीने चित अपने गुण्यो || भक्ति विनयकर उत्तम भाय । पहुँचे अपने गृहको आय ||२७|| याविधि जो नरनारी करै । सो भवसागर निश्चय तेरे || नलिनकीर्ति मुनि संस्कृत कही । ब्रह्मज्ञान भाषा निर्मयी ||२८|| इति || २४४ - अथदशलक्षणत्रत कथा | दोहा - प्रथम बंदि जिनराजको, शारद गणधर पांय । दशलक्षणव्रत की कथा, कहूं सुगम सुखदाय ॥१॥ चौपाई - विपूलाचल श्रीवीरकुमार | आये भविभवभंजनहार ॥ सुनिश्रेणिकनृप बदन गयो । सर्व लोकसँग आनंद भयो ॥२॥ श्रीजिन पूजे मनधर चाव | स्तुति करी जोड़कर भाव || धर्मकथा तहँ सुनी विचार | दानशील तप भेद अपार ॥३॥ भव दुखधायक दायक शर्म । भाख्यो प्रभु दशलच्छन धर्म | ताकौ सुनि श्रेणिक रुचि धरी । गुरु गौतमसों विनती करी ॥ दशलच्छनत्रतकथा रसाल । मुझको भाखहु दीन
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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