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________________ ४७८ वृहज्जैनवाणीसंग्रह। शोक सब जाय ॥५॥ करुणानिधि भाखहि मुनिराय । सुनो। • भव्य तुम चित्त लगायं ॥ जब अषाढ़ सुदि पक्ष विचार । तब । की अंतिम रविवार ॥६॥ अनशन अथवा लघु आहार । * लवणादिक जु करै परिहार ॥ नवफलयुत पंचामृतधार । वसुप्रकार पूजो भवहार ।।७॥ उत्तम फल इक्यासी जान ।। नवश्रावक घर दीजै आन ॥ या विधकर नववर्ष प्रमाण । * जात होय सर्व कल्याण ॥ ८॥ अथवा एक वर्ष इक सार।। कीजै रविव्रत मनहिं विचार । सुन साहुन निज घरको गई । व्रत निंदाकर निंदित भई ॥९॥ व्रत निंदा निर्धन भये ।। सातहि पुत्र अवधपुर गये ।। तहँ जिनदत्त सेठ घर रहै। पूर्व दुःकृतका फल ल है ॥१०॥ मात पिता गृह दुःखित सदा । अवधि सहित मुनि पूछे तदा ॥ दयावंत मुनि ऐसें । कह्यो। व्रतनिंदासै तुम दुख लह्यो ॥ ११॥ सुनि गुरुवचन *बहुरिबत लयो । पुण्य थयो घरमें धन भयो । भविजन । सुनो कथा संबंध । जहँ रहते थे वे सब नंद ॥ १२ ॥ एक दिवस गुणधर सुकुमार । घास लेय आओ गृहद्वार ॥ क्षुधावंत भावजपै गयो । दंत बिना नहिं भोजन दयो ॥ १३ ॥ बहुरि गयो जहाँ भूल्यो दंत । देख्यो तासों अहिलिपटत॥ फणिपतिकी तहँ विनती करी । पद्मावति प्रगटी तिहिं घरी। ॥ १४ ॥ सुंदर मणिमय पारसनाथ । प्रतिमा एक दई तिहिं । हाथ ॥ देकर कह्यो कुंवरकर भोग । करो क्षणक पूजासंयोग । ॥ १५ ॥ आन विव निज घरमें धरयो । तिहँकर तिनको ।
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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