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________________ R- - -- 25- R A K-* MMovvvv wwwwvow ANN JVVVvvvv वृहज्जैनवाणीसंग्रह १७ दारिद हरयो । सखविलास सेवै सब नन्द । नितप्रति पूर्ज, * पास जिनंद ॥ ६॥ साकेतानगरी अभिराम । सुंदर बन वायो जिनधाम । करी प्रतिष्ठा पुण्यसंयोग । आये भविजन संग सु लोग ॥१७॥ संघ चतुर्विधिको सनमान। कियो। दियो मनवांछित दान ।। देख सेठ तिनकी संपदा । जाय * कही भूपतिसों तदा॥ १८ ॥ भूपति तब पूछयौ विरतंत । । । सत्य कह्यो गुणधर गुणवंत ॥ देख सुलक्षन ताको रूप। * अति आनंद भयो सो भूप ॥ भूपतिगृह तनुजा सुंदरी । गुण धरको दीनी गुणभरी ।। करविवाह मंगल सानंद । हय गय । पुरजन परमानंद॥२०॥मनवांछित पाये सुख भोग । विस्मित भये सकल पुरलोग ॥ सुखसों रहत बहुत दिन गये। तब । सब बंधु बनारस गये ॥२१॥ मात पिताके परसे पाय । अति ।। आनंद हिरदै न समाय॥ विघटयो सबको विषम वियोग। भयो सकल पुरजन संयोग ॥२२॥ आठ सात सोलहके अंक। रविव्रत कथा रची अकलंक ॥ थोडो अरथ ग्रंथ विस्तार । कहै कवीश्वर जो गुणसार ॥ २३ ॥ यह व्रत जो नर नारी २ करें । कचहूं दुर्गतिमें नहिं पर ॥ भावसहित ते शिवसुख लहैं । भानुकीर्ति मुनिवर इमि कहैं ॥२४॥ २४६-पुष्पांजलिव्रतकथा। * दोहा-वीरदेवको प्रणमिकर, अर्चा करों त्रिकाल। पुष्पांजलिव्रतकी कथा, सुनो भव्य अध टाल ॥१॥ । चौपाई-पर्वत विपुलाचलपर आय । समोशरण जिन-1 *REKKR- STRE
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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