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________________ - - - --- -- - - ४८० . वृहज्जैनवाणीसंग्रह * वरका पाय ॥ तिहं सुन राजा श्रेणिक राय। बंदन चले । प्रियायुत भाय ॥२॥ वंदन कर पूछत नृप तवै । हे प्रभु पुष्पांजलिव्रत अवै ।। मांसों कहो करों चितलाय । कौने । *कियो कहा फल पाय ॥ बोले गौतम वचन रसाल।। * जदूद्वीपमध्य सुविशाल । सीतानदि दक्षिण दिशि सार । मंगलावती सुदेश मझार ॥४॥ 1 दोहा-रतनसंचयपुर तहां, वज्रसेन नृपराय । । जयवंती वनिता लसै, पुत्र विना ही थाय ॥५॥ * चौपाई-पुत्रचाह जिनमंदिर गई। ज्ञानोदधि मुनि वंदित । भई ॥ हे मुनिनाथ कहो समझाय। मेरे पुत्र होय कै नाय ॥६॥ दोहा-मुनि बोले हे वालकी, पुत्र होय शुभ सार । भूमी । छह खंड साधि है मुक्ति तनों भरतार ||७|| सुनकर मुनिक । वचन तब, उपज्यो हर्ष अपार । क्रमसों पूरे मास नव, पुत्र * भयो शुभ सार ॥८॥ यौवन वयसको पायकर, क्रीडा मंडप सार। तहां व्योमसों आइयो, खग भूपर तिसवार ॥६॥ रत्नशिखरको देखकर, बहुत प्रीति उरमाहिं । मेघवाहनने पांचसो, विद्या दीनी ताहि ॥१०॥ चौपाई-दोनों मित्र परस्पर प्रीति । गये मेरु बंदन तज * भीति ॥ सिद्धकूट चैत्यालय बंदि। आये सब जन मन आनंदि .११॥ ताकी सखी जनाई सार। वेग स्वयंवर । करो तयार ॥ भूरि भूप आये तत्काल। माल रत्नशेखर गल डाल ||१२|| धूमकेतु विद्याधर देख । क्रोध कियो मन
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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