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________________ niruramwammmmmmmmmmmmmwwwwwwwwwwwwer. १. २८४ वृहज्जैनवाणीसंग्रह ओं ही सम्यग्ररत्नत्रय ! अत्र अवतर अवतर । संवौषट् । ओं ही सम्यग्ररत्नत्रय ! अन तिष्ठ तिष्ठ । ठ ठ । ओं ह्रीं सम्यग्रस्नत्रय ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । सोरठा-क्षीरोदधि उनहार, उज्वल जल अति सोहनो। जनमरोग निरवार, सम्यकरत्नत्रय भजू ॥१॥ ओं ह्रीं सम्यग्ररत्नत्रयाय जन्मरोगविनाशाय जलं निर्वपामीति स्वाहा । चंदन केसर गारि, परिमल महासुरंगमय । जन्म०॥चंदनं । * तंदुल अमल चितार, वासमती सुखदासके । जन्म०||अक्षतान् । • महकैं फूल अपार, अलि गु0 ज्यों थुति करें । जन्म०iपुष्पा । लाडू वहु विस्तार, चीकन मिष्ट सुगंधयुत ॥ जन्म नैवेद्य।। * दीपरतनमय सार, जोत प्रकाशै जगतमें । जन्म० दीपं ॥ धूप सुवास विथार, चंदन अगर कपूरकी । जन्म० ॥धूप। * फल शोभा अधिकार, लोंग छुहारे जायफल ।जन्माफल।। आठदरब निरधार, उत्तमसों उत्तम लिये । जन्म०॥ अयं ॥1 सम्यकदरशरनज्ञान, व्रत शिवमग तीनों मयी । पार उतारन जान, 'धानत' पूजों व्रतसहित ॥१०॥ दर्शनपूजा। ॥ दोहा-सिद्ध अष्टगुनमय प्रगट, मुक्तजीवसोपान । जिहविन ज्ञानचरित अफल, सम्यकदर्श प्रधान ॥१॥ *ओं ही अष्टांगसम्यग्दर्शन ! अत्रावतर अवतर । संवौषट् । *ओं ह्रीं अष्टोगसम्यग्दर्शन ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठठः। ओं ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शन ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । * HEKRISe*
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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