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________________ XRKIRe* वृहज्जैनवाणीसंग्रह wwwwwwwwwwwwww. अथ समुच्चय जयमाला। दोहा-दशलच्छन बंदौं सदा, मनवांछित फलदाय। कहों आरती भारती, हमपर होहु सहाय ॥१॥ वेसरी छंद-उत्तमछिमा जहां मन होई, अंतरबाहिर शत्रु न कोई । उत्तममार्दव विनय प्रकास, नानाभेद ज्ञान सब भासै ॥ २ ॥ उत्तमआर्जव कपट मिटावै, दुरगति त्यागि सुगति उपजावै। उत्तम सत्यवचन मुख बोले, सो प्रानी स सार नं डोलै ॥३॥ उत्तमशौच लोभपरिहारी, संतोषी गुण- 1 भरतनभंडारी। उत्तमसंयम पाले ज्ञाता, नरभव सफल करै । ले साता ॥ ४॥ उत्तमतप निरवांछित पालै, सो नर करम शत्रुको टालै । उत्तमत्याग करै जो कोई, भोगभूमि-सुर-शि* व सुख होई ॥ ५॥ उत्तमआकिंचनव्रत धारै, परमसमाधि । दशा विसतारै। उत्तम ब्रह्मचर्य मन लावै, नरसुरसहित मुकतिफल पावै ।। ६ ॥ दोहा-करै करमकी निरजरा, भवपींजरा, विनाशि । ___अजर अमरपदको लहै, 'धानत' सुखकी राशि ॥७॥ * भो ही उत्तमक्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमतपस्यागार्किचन्थब्रह्म कचर्यदशलक्षणधर्माय पूर्णाध्य निर्वपामीलि स्वाहा ॥ । ११०-अथ रत्नत्रयपूजा भाषा दोहा-चढुंगतिफनिविषहरनमणि, दुखपावक जलधार ।। शिवसुखसुधासरोवरी, सम्यकत्रयी निहार ॥१॥
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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