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________________ *HR २७८ वृहज्जैनवाणीसग्रह MarwAAAAAAAAAAAAAAHANI MANANAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAMA १०९-अथ दशलक्षणधर्मपूजा भाषा अडिल्ल-उत्तम छिमा मारदव आरजवभाव हैं । सत्य 1 सौच संजम तप त्याग उपाव हैं ।। आकिंचन ब्रह्मचरज धरम दश सार हैं। चहुंगतिदुखतै काढि मुकतिकरतार हैं ॥१॥ , ओं ही उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्म ! अत्र अवतर अवतर संवौपद ओं ही उत्तमझमादिदशलक्षणधर्म । अन्न तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । ओं ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधम ! अब मम सन्निहितो भव भव वषट् र सोरठा-हेमाचलकी धार, मुनिचित सम शीतल सुरभि । भवआताप निवार, दसलच्छन पूजौं सदा ॥१॥ ___ ओं हो उत्तमक्षमामार्दवार्जव सत्यशौचसंयमतपस्त्यागाकिंचन्यब्रह्मचर्यादिदशलक्षणधर्मेभ्यः जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १ ॥ चंदन केशर गार, होय सुवास दशों दिशा । भव०॥ चंदनं । अमल अखंडितसार, तदुल चंद्रसमान शुभ भिव०॥ अक्षतान् । * फूल अनेकप्रकार, महकै ऊरधलोक लो । भव०॥ पुष्पं ॥ * नेवज विविध निहार, उत्तमः पटरससंजुगत भव०॥ नैवेद्यं । को वाति कपूर सुधार, दीपकजोति सुहावनी [भव०॥ दीपं ॥ है अगर धूप विस्तार, फैल सर्व सुगंधता । भवा० ॥ धूपं ॥ । फलकी जाति अपार, प्रान नयन मनमोहने ।भव०॥ फल। आठो दरव संवार, धानत अधिक उछाहसों । भव०॥ अर्घ्य । अंग पूजा। सोरठा-पीडै दुष्ट अनेक, बांध मार बहुविधि करें । धरिये छिमा विवेक, कोप न कीजे पीतमा ॥२॥ * --++ KSHRAR*
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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