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________________ wwwwww wüw vwwwwwwww wwwwwwwwwwww *** *RAKASH RE " वृहज्जैनवाणीसंग्रह २७७ कण पालीइणिरु। भो खेमसियासुय भन्न विणय जुय होलि* वम्मयह करहु थिरु ।। _ ओं ही उत्तमब्रह्मचर्यधर्मा गाया निर्वामीति स्वाहा ।। . समुञ्चय आरती। ___ इय काऊण णिज्जरं जे हणति भवपिंजरं। नीरोयं अजरामरं ते लहंति सुक्खं परं ॥ १ ॥ जण मोक्खफल तं पाविज्जइ, सो धम्मंगो एहहु गि। जइ । खमखमायलु तुंगय देहउ, मदउ पल्लउ अज्जउ । सेहउ ।। सच्च सउच्च मूल संजमदल, दुविह महातव णवकुसुमाउलु । चउविह चाउय साहियपरमल, पीणिय भवलोय छप्पइयलु ॥ दियसंदोह सद्द कलकलयलु, सुरणरचरखेयर * सुहसयफल । दीणाणाह दीह समणिग्गहु, सुद्ध सोमतणु१ मित्तपरिग्गहु ।। बंभचेरु छायइ सुहासिउ, रायहंस नियरे हि समासिउ । एहउ धम्म रुक्ख लाखिज्जइ, जीवदया है * वयणहि राखिज्जइ ॥ झाणहाण भल्लारउ किज्जइ, मि च्छामई पवेस ण दिज्जइ । सीलसलिलधारहि सिंचि* ज्जइ, एम पयत्तणवड्ढारिज्जइ ॥ पत्ता-कोहानल चुक्कर, होउ गुरुक्कउ, जाइ रिसिदिय सिद्धगई। * जगताइ सुहकरु धम्ममहातरु देइ फलाइ सुमिहमई ॥1 ओं ही उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्मेभ्योऽर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥ (इत्याशीर्वादः) *EKKRKERSARKAR*
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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