SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७६ बृहज्जैनवाणीसंग्रह जहि परमेद्विभत्ति ॥ जह छंडिज्जइ संकप्पदुङ, भोयण वंछिज्जइ जह अणि । आकिंचण धम्म जि एम होइ, तं ज्झाइज्जइ रुइत्थलोइ || घत्ता - ए हुज्जि पहावे, लद्ध AAAA MAN NAAMARAN IRANANAAAAA सहावे तित्थेसर ' सिवनय रिगया । ते पुण रिसिसारा मयणवियारा बंदणिज्ज एतेण सया ॥ ओं ह्रीं उत्तमाकिंचन्यधर्मा गायार्धं निर्वपामीति स्वाहा । नवधा सर्वदा पाल्यं शीलं संतोषधारिभिः । भेदाभेदेन संयुक्तं सद्गुरूणां प्रसादतः ॥ १०॥ ओं ह्रीं परब्रह्मणे उत्तमत्रह्मचर्यधर्मा गाय जलाद्यघं निर्व० ॥ बंभव दुद्धरु धारिज्जइवरु केडिज्जइ विसयासणिरु । तियसुक्खयरत्तो मणकरिमत्तो तं जि भव्य रक्खेहु थिरु || चित्तभूमि मयणु जि उपवज्जइ, तेण जु पीडउ करइ अकज्जइ । तियह सरीरह णिदह सेवइ, णिय परणारि ण मूढउ चैवइ । णिवडइ गिरय महादुह भुंजइ, जो हीणुजि बंभव्वउ भंजइ ॥ इय जाणेविणु मणत्रयकाए, बंभचेरु पालहु अणुराए । णवपयार सत्थिय सुहयारउ, बंभव्वे विणु वउतउजिअसार । भव्वे विणु काय किलेसह, विहल सयल भा सीय जिसइ | बाहिर फरसें दियसुहरक्खड, परमवंभ आभितर पिक्खउ || एण उवाए लब्भइ सिवहरु, इम रहधू बहुभणइ विणययरु ॥ पत्ता - जिणणाह महिज्जर, मुणि पणविज्जह, दहलक्ख
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy