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________________ *- - ------ -* Vvvvvvvvvvvvvur Vvvv vvvvvvvvwww वृहज्जैनवाणीसंग्रहः २७५ । चाए चयरिय पणभिइ पाये, चाए भोगभूमि सुह जाए ॥२॥ चाउ विहिज्जइ णिच जि विणए, सुयवयणे भासेप्पिणु । पणए । अभयदाण दिज्जइ पहिलारउ, जिमि णासइ परभव दुहयारउ ॥ सत्थदाण वीजो पुण किज्जइ, णिम्मलणाण * जेण पाविज्जइ । ओसह दिज्जइ रोयविणासणु, कह विण पित्थइ वाहिपयासणु ॥ आहारे धणरिद्धि पविट्टइ, चउविह चाउ जि एहु पविट्टइ । अहवा दुइवियप्पह चाए, चाउ जि एहुमुणहु समवाए ॥५॥ पत्ता-दुहियहिं दिज्जइ दाण, किज्जइ माणु जि गुणियणहिं । दयभावीय अभंग, देसण चिंतिज्जइ मणहं ॥ , *ओं ही उत्तमन्यागधर्मा गाया निवपामीति स्वाहा । चतुर्विशतिसंख्यातो यो परिग्रह ईरितः । - तस्य संख्या प्रकर्तव्या तृष्णारहितचेतसा ॥८॥ ओ हों परब्रह्मणे उत्तमाकिचन्यधर्मा गायाधू निवपा। . आकिंचणु भावहु अप्पा झावहु देहभिण्णउज्झाणमऊ।। निरुवम गयवण्णउ सुहसंपण्णउ, परम अतींदिय विगयभउ * ॥१॥ आकिंचणु चउसंगहणिवित्ति, आकिंचणु चउसुज्झा णसत्ति । आकिंचणु वउवियलियममत्ति, आकिंचणु रयणत्तयपवित्त । आकिंचणु आउ चिएहिचित्त, पसरंतउ इंदिय । वणिविचित्त । आकिंचणु देहहणेहचित, आकिंचणुजं भवसुइ विरत्त । तिणमत्त परिग्गह जत्थ णस्थि, मणिराउ विहि* जइ तव अवस्थि । अप्पापर जत्थ वियारसत्ति, पयडिज्जा।
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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