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________________ X- -- १२६४ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww बृहज्जैनवाणीसंग्रह * परभवपावेप्पिणु तच्च मुणेप्पिणु खंड वि पंचेंदियसमणु।। *णिन्वेउवि मंडिवि संगइ छंडिवि तव किज्जइ जाये विवणु॥ तं तउ जहि परिगह छंडिज्जह, तं तउ जहि मयणु जि खडिज्जइ । तं तउ जहि णग्गत्तणु दीसइ, तं तर जहि गिरि-1 कंदर णिवसइ ।।२।। तं तउ जहि उवसग्ग सहिज्जइ, तं तउ जहि रायाइ जिणिज्जइ । तं तउ जहि भिक्खइ अँजिज्जइ, • सावइगेह कालणिविसज्जइ ॥३॥ तं तउ जत्थ समिदिपरि पालणु, तं तउ गुत्तित्तयहणिहालणु । तं तउ जहि अप्पापर। बुझिउ, तं तउ जहि भव माणु जि लज्झिउ ॥ तं तउ जहि । ससरूव मुणिज्जइ, तं तउ जहि कम्महगण खिज्जइ । तं तउ जहि सुरमतिपयासहि, पवयणत्थ भवियणह पभासहि ॥५॥ * जेण तवे केवल उपवज्जइ, सासय सुक्ख णिच संपज्जइ ॥ पत्ता-वारहविहु तउवरु दुग्गइ परिहरु, तं पूज्जिइ थिरगपिणा । मच्छरमयछंडिवि करणइ दंडिवि तं पि धइिज्जइ । ॐ गौरविणा ॥ ओं ही उत्तमतपोधर्मा गायाध निर्वामीति स्वाहा ॥ र चतुर्विधाय संघाय दानं चैव चतुर्विधं । * दातव्यं सर्वथा सनिश्चितकै पारलौकिकैः ।।८।। ओं ही परब्रह्मणे उत्तमत्यागधर्मागाय जलाद्यर्घ नि० ॥ चाउ विधम्मंगो करहु अभंगो णियसत्तिइ भत्तिय जण-* कहु । पत्तह सुपवित्तह तवगुणजुत्तह परगइसंवलु तं मुणहु ॥ चाए आवागवणउ हट्टइ, चाए णिम्मल कित्ति पविट्टइ ।।
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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