SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 215
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ AAAAAAAAN AMAN बृहज्जैनवाणीसंग्रह २०३ सिवमग्ग सहाओ सिवपयदाओ अणुमचिंतहिकिंणिखणि । *ओं ही उत्तमशौचधर्मा गायाधं निवेपामीति स्वाहा ॥५॥ संयम द्विविधं लोके कथित मुनिपुंगवैः । पालनीयं पुनश्चित्ते भव्यजीवेन सर्वदा ॥६॥ ओं ही परब्रह्मणे उत्तमसंयमधर्मा गायजलाधवं निर्वपामीति स्वाहा। संजम जणि दुल्लहु, तं पाविल्लहु, जो छंडइ पुण मूढमई।। । सो भमै भवावलि, जरमरणावलि, किम पावइ सुइ पुण सुगई। संजम पंचेंदिय दंडणेण, संजम जि कसाय विहंडणेण । स* जम दुद्धर तव धारणेण, संजमरस चाय वियारणेण ॥ संजम । उववास वियंभणेण, संजम मणुपसरहु थंभणेण । संजम गुरु । कायकलेसणेण, संजम परिगहगिहचायणेण ॥ संजम तसथावररक्खणेण, संजम तिणि जोयणियत्तणेण । संजमसुतस्थपरिरक्खणेण, संजम बहुगमण चयंतणेण ॥ संजम अणुकंपकुणंतणेण, संजम परमत्थवियारणेण । संजम पोसइ दंसण हु अत्यु, संजम तिसहूणिरुमोक्खपत्थ । संजम विणु परभव । सयल सुण्णु, संजम विणु दुग्गइ जि उपवण्णु । संजम विण घडि यम इत्थ जाउ, संजमाविण विहली अत्थि आउ॥ यत्ता* इहभवपरभव संजमसरणो, होजउ जिणणाहे भणिओ। * दुग्गइ सरसो सण खरकिरणोवम जेण भवारि विसम हणिओ ओं ही संयमधर्मा गायाध निर्वपामीति स्वाहा ॥॥ * द्वादशं द्विविधं लोके वाह्याभ्यंतरभेदतः। स्वयं शक्तिप्रमाणेन क्रियते धर्मवेदिभिः ॥७॥ मों ही परब्रह्मणे उत्तमतपोधर्मा गाय जलाद्य निर्व० ॥ * - * 18
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy