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________________ * AKAKARKARISKRR* vNNNN ___ वृहज्जैनवाणीसंग्रह २८५ * सोरठा-नीर सुगंध अपार, त्रिषा हरै मल छय करै। . र सम्यकदर्शनसार, आठअंग पूजौं सदा ॥१॥ *ओं ही अष्टांगसम्यग्दर्शनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ जल केसर धनसार, ताप हरै सीतल करै। सम्यगचंदन। अछत अनूप निहार, दारिद नाशै सुख भरै । सम्य०|अक्षतान् । पहुप सुवास उदार, खेद हरै मन शुचि करै । सम्य० ॥पुष्पा नेवज विविधप्रकार, छुघा हरै थिरता करै। सम्य० ॥नैवेद्यो । दीपज्योति तमहार, घटपट परकाशै महा । सम्य० ॥दीपं॥ धूप घानसुखकार, रोग विघन जड़ता हरै । सम्यक०'धूप श्रीफलआदि विथार, निहचै सुरशिवफल करै । सम्य० ॥फलं॥ जल गंधाक्षत चार, दीप धूपे फलफूल चरु। सम्यक०॥अर्घ अथ जयमाला । * दोहा-आप आप निह लखै, तत्वप्रीति व्योहार।. रहितदोष पच्चीस है, सहित अष्ट गुन सार ॥१॥ चौपाई-मिश्रित गीताछन्द। , सम्यकदरशन रतन गहीजै । जिनवचमें संदेह न कीजै।। । इहभव विभवचाह दुखदानी । परभवभोग चहै मत प्रानी॥ पानी गिलान न करि अशुचि लखि, धरमगुरुप्रभु परखिये। परदोष ढकिये धरम डिगतेको, सुथिर कर हरषिये ।। * चहुसंघको वात्सल्य कीजे, धरमकी परभावना। *गुन आठसों गुन आठ लहिकैं, इहां फेर न आवना ॥२॥ *ओं ही अष्टांगसहितपञ्चविंशतिदोषरहिताय सम्यग्दर्शनाय पूर्णायं ॥ * ---- - ** *
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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