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________________ *RK -KH वृहज्जैनवाणीसंग्रह A R १६७ ramnormammmmmmmmmmmmmamarrammrrrrrrrrrrr न्हावहीं ॥९॥ वदन उदर अवगाह, कलसगत जानिये । एक चार वसु जोजन, मान प्रमानिये ॥ सहस-अठोतर कलसा, प्रभुके सिर ढरहै । पुनि सिंगार प्रमुख आचार सबै । करइँ ॥ करि प्रगट प्रभु महिमा महोच्छत्र, आनि पुनि मातहिं दये। धनपतिहिं सेवा राखि सुरपति, आप सुरलोकहिं गये ॥ जनमाभिषेक महंत महिमा, सुनत सब सुख पावहीं । भणि रूपचंद'सुदेव जिनवर जगत मंगल गावहीं॥ ३ तपकल्याणक। श्रमजल रहित सरीर, सदा सब मलरहिउ। छीर वरन। *वर रुधिर, प्रथम आकृति लहिउ ॥ प्रथम सार संहनन, सरूप विराजहीं । सहज सुगंध सुलच्छन, मंडित छाजहीं॥ छाजहिं अतुलवल परम प्रिय हित, मधुर वचन सुहावने।। * दस सहज अतिशय सुभग मूरति, बाललील कहावने ॥ आवाल काल त्रिलोकपति मन, रुचिर उचित जु नित नये। * अमरोपनीत पुनीत अनुपम, सकल भोग विभोगये ॥११॥ भवतन-भोग-विरत्त, कदाचित चित्तए । धन जोवन पिय पुत्त, कलत्त अनित्तए । कोउ न सरन मरनदिन, दुख चहुंगति भरयो । सुखदुख एकहि भोगत, जिय विधिवसिपरचो॥ परयो विधिवसि आन चेतन, आन जड़ जु कलेवरो। तन, * असुचि परतें होय आस्रव, परिहरेतै संवरो ।। निरजरा तप बल होय, समकित,-विन सदा त्रिभुवन भन्यो। दुर्लभ विवेक विना न कबहूं परम धरमविष रम्यो ॥१२॥ ये प्रभु। * SKRIK *
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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