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________________ १७० वृहज्जैनवाणीसंग्रह " मानंद सबको, नारि नर जे सेवता । जोजन प्रमान धरा सुमार्जहिं, जहां मारुत देवता || पुनि करहिं मेघकुमार गंधोदक सुवृष्टि सुहावनी । पदकमलतर, सुरखिपहिं कमलसु, धरणि ससिसोभा बनी ॥१९॥ अमलगगनतल अरु दिसि, तहँ अनुहारहीं । चतुरनिकाय देवगण, जय-जयकारहीं ॥ धर्मचक्र चलै आगे, रवि जहँ लाजहीं । पुनि भृंगार - प्रमुख वसु मंगल राजहीं " राजहीं चौदह चारु अतिशय, देव रचित सुहावने । जिनराज केवलज्ञानमहिमा, अवर कहत कहा वनै ॥ तव इद्र आय कियो महोच्छव, सभा सोभा अति बनी। धर्मोपदेश दियो तहां, उच्चरिय वानी जिनतनी ॥२०॥ छुधातृषा अरु रोग, रोष असुहावने । जनम जरा अरु मरण, त्रिदोष भयावने || रोग सोग भय विस्मय, अरु निद्रा घनी । खेद स्वेद मद मोह, अरति चिंता गनी || गनिये अठारह दोष तिनकरि रहित देव निरंजनो । नव परम केवललब्धिमंडिय, सिवरमनि- मनरंजनो ॥ श्रीज्ञानकल्याणक सुमहिमा, सुनत सब सुख पावहीं। भणि 'रूपचंद' सुदेव जिनवर, जगतमंगल गावहीं ॥ २१ ॥ ५ निर्वाणकल्याणक । , केवलदृष्टि चराचर, देख्यो जारिसो। भव्यनिप्रति उपदेस्यो जिनवर तारिस || भवभयभीत भविकजन, सरणे आइया । रत्नत्रयलच्छन सिवपंथ लगाइया || लगाइया पंथ जु भव्य पुनि प्रभु, तृतिय सुकल जु पूरियो । तजि
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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