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बृहज्जैनवाणीसंग्रह
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तेरवां गुणथान जोग, अजोगपथपग धारियो || पुनि चौदहें चौथे सुकलवल, बहत्तर तेरह हती । इमिघाति वसुविध कर्म पहुंच्यो, समय में पंचमगती ॥ २२ ॥ लोकसिखर तनुवात, वलय महँ संठियो । धर्मद्रव्यविन गमन न जिहि आगे कियो || मयनरहित भूपोदर, अंचर जारिसो। किमपि हीन निजतनुतै, भयो प्रभु तारिसो॥ तारिस पर्जय नित्य अविचल, अर्थपर्जय छनछयी । निश्चयनयेन अनंतगुण, विवहार नय वसुगुणमयी | वस्तुस्वभाव विभावविरहित, सुद्ध परिणति परिणयां । चिदरूपपरमानंदमंदिर, सिद्ध परमातम भयो || २३ || तनुपरमाणू दामिनिपर, सब खिर गए। रहे सेस नखकेश-रूप, जे परिणए । तत्र हरिप्रमुख चतुरविधि, सुरगण शुभसच्यो । मायामयि नख केशरहित, जिनतनुरच्यो । रचि अगर चंदन प्रमुख परिमल, द्रव्य जिन जयकारियो । पदपतित अगनिकुमार मुकुटानल, सुविध सँस्कारियो || निर्वाणकल्याणक सु महिमा, सुनत सब सुख पावहीं। भणि 'रूपचंद' सुदेव जिनवर, जगत मंगल गावहीं ||२४|| मै मांतहीन भगतिवस भावन भाइया । मंगलगीत प्रबंध, सुजिनगुण गाइया || जो नर सुनहिं, चखानहिं सुर धरि गावहीं। मनवांछित फल सो नर, निह पावहीं ॥ पावहीं आठों सिद्धि नवनिधि मनप्रतीत जो लावहीं | भ्रम भाव छूटै सकल मनके, निजस्वरूप लखावहीं ॥ पुनि हरहिं पातक ठरहिं विधन, सु
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