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________________ vvvvvvvv १६६ वृहज्जैनत्राणीसंग्रह चित्र, सु अमरमंडप सोहये । घन घंट चँवर धुजा पताका देखि त्रिभुवन मोहये ॥६॥ तिहिं करि हरि चढि आयउ, सुरपरिवारियो । पुरिहि प्रदच्छन देवय, जिन जयकारियो॥ गुप्तजाय जिनजननिहि, सुखनिद्रा रची। मायामयि सिसु । राखि तौ, जिन आन्यो सची । आन्यो सची जिनरूप निर- 1 से खत, नयन तृपित न हूजिये । तब परम हरषित हृदय हरणा सहस लोचन पूजिये । पुनि करि प्रणाम जु प्रथम इंद्र, उछंग । धरि प्रभु लीनऊ । ईसान इंद्र सु चंद्र छवि सिर, छत्र प्रभुके। दीनऊ ॥७॥ सनतकुमार माहेंद्र, चमर दुइ ढारहीं। सेस । * सक्र जयकार, सबद उच्चारहीं ॥ उच्छवसहित चतुरविधि, । सुर हरषित भये । जोजन सहस निन्यानव, गगन उलँघि । • गये ॥ लँधिगये सुरगिरि जहां पांडुक-वन विचित्र । विराजहीं ।, पांडुकशिला तहँ अर्द्धचंद्र समान, मणि । छवि छाजहीं ॥ जोजन पचास विशाल दुगुणायाम, वसु । * ऊंची गनी । घर अष्ट-मंगल-कनक कलसनि सिंह* पीठ सुहावनी ॥ ८॥ रचि मणिमंडप सोभित, मध्य- सिंहासनो । थाप्यो पूरच मुख तहँ, प्रभु कमलासनो। वाजहिं ताल, मृदंग, वेणु वीणा घने । दुंदुभि प्रमुख मधुर धुनि, अवर जु बाजने ॥ वाजने वाजहिं सची सव मिलि, धवलमंगल गात्रहीं। पुनि करहिं नृत्य सुरांगना सब, देव । * कौतुक धावहीं ॥ भरि छीरसागर जल जु हाथहि, हाथ । सुरगिरि ल्यावहीं । सौधर्म अरु ईशान इंद्रमु कलस ले प्रभु।
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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