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________________ * ४३४ वृहज्जैनवाणीसंग्रह चेतन अचेतन सब परिग्रह हुआ अपनी थिति लहैं । सो रहैं । आप करार माफिक अधिक राखे ना रहैं । अव शरण काकी लेयगा जब इंद्र नाही रहत हैं । शरण तो इक धर्म आतम । जाहि मुनिजन गहत हैं ॥२॥ सुर नर नरक पशु * सकल हेरे कर्मचेरे बन रहे । सुख शासता नहिं भासता सब विपतिमें अतिसन रहे ॥ दुख मानसी तो देवग- तिमैं नारकी दुख ही भरै । तिर्यंच मनुज वियोग रोगी । शोक संकटमैं जरै ।। ३ ॥ क्यों भूलता शठ फूलता है देख परिकरथोकको । लाया कहां लेजायगा क्या फौज भूषण । रोकको ॥ जनमत मरत तुझ एकलेको काल केता होगया। * सँग और नाहीं लगे तेरे सीख मेरी सुन भया ॥४॥ इंद्री। नतै जाना न जावै तू चिदानंद अलक्ष है । स्वसंवेदन करत । अनुभव होत तव परत्यक्ष है ॥ तन अन्य जड जानो सरूपी तू अरूपी सत्य है । कर भेदज्ञान सो ध्यान धर निज और। बात असत्य है ॥५॥ क्या देख राचा फिरै नाचा रूपसुंदरतन लहा। मलमूत्र भांडा भरा गाढा तू न जानै भ्रम गहा ॥ क्यों सूग नाहीं लेत आतुर क्यों न चातुरता धरै।। तुहि काल गटकै नाहिं अटकै छोड तुझको गिर परै ॥६॥ कोइ खरा अरु कोइ बुरा नहिं वस्तु विविध स्वभाव है। तू । वृथा विकलप ठान उरमैं करत राग उपाव है। यूं भाव * आस्त्रवे बनत तू ही द्रव्य आस्त्रव सुन कथा । तुझ हेतुसे पुद्गल करम न निमित्त हो देते व्यथा ॥७॥ तन भोग जगत । -R AKASKARE -RAKA *
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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