SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 334
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ **** वृहज्जैनवाणीसंग्रह ४३३ पुरुष संठान । तामैं जीव अनादितै, भरमत हैं विन ज्ञान ॥ भरमत हैं विन ज्ञान लोकमै कभी न हित उपजाया । पंच परावृत करते करते सम्यकज्ञान न पाया। अब तू मोहकर्मको हरकर तज सब जगकी आसा । जिनपद ध्याय लोकशिर ऊपर करले निज थिर बासा ॥ ११॥ धनकनकंचन राजसुख, सबहि सुलभकर जान । दुर्लभ है संसार में, एक जथारथ ज्ञान || एक जथारथ ज्ञान सु दुर्लभ है जग मैं अधिकाना । थावर त्रस दुर्लभ निगोदतें नरतन संगति पाना || कुल श्रावक रत्नत्रय दुर्लभ अरु षष्ठम गुनथाना । सचतेंदुर्लभ आतम ज्ञान सु जो जगमांहिं प्रधाना || १२ || जाचे सुरतरु देय सुख, चिंतत चिंता रैन । विन जाचे विन चितये धर्म सकल सुख दैन || धर्म सकल सुखदैन रैन दिन भवि जीवन मन भाता । षद् दर्शन ईसा सूसा महमदका मत न सुहाता || वीतराग सर्वज्ञदेव गुरु धर्म अहिंसा जानो । अनेकांत सिद्धांत सप्त तवनको कर सरधानो || १३|| दोहा - भूधर कवि कृत भावना, द्वादश जगपरधान । तापर इक अल्पज्ञने छंद रचे हित जान ||१४|| इति ॥ । AAA २२६ - बारह भावना बुधजनकृत । गीता छंद - जेती जगतमै वस्तु तेती अथिर परणमती सदा । परणमनराखन नाहि समरथ इंद्र चक्री मुनि कदा | सुतनारि यौवन और तन धन जान दामिनि दमकसा । ममता न कीजे धारि समतामानि जलमैं नमकसा ॥ १ ॥ 28
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy