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। बृहज्जैनवाणीसग्रह ४३५ सरूप लख डर भविक गुरशरणा लिया। सुन धर्म धारा भर्म । गारा हर्षि रुचि सन्मुख भया । इंद्री अनिंद्री दाबि लीनी सरु थावर बँध तजा । तब कर्म आस्त्रव द्वार रोके ध्यान निजमैं जा सजा ॥८॥ तज शल्य तीनों बरत लीनो वाह्य* भ्यंतर तपतपा। उपसर्ग सुरनर जड पशूकृत सहा निज * आतम जपा ॥ तब कर्म रसविन होन लागे द्रव्यभावन निर्जरा । सब कर्म हरकै माक्ष वरकै रहत चेतन ऊजरा ॥९॥ विच लोक नंतालोक माही लोकमैं द्रव सब भरा । सब भिन्न मिन्न अनादिरचना निमितकारणकी धरा ।। जिनदेव भाषा तिन प्रकाशा भर्मनाशा सुन गिरा। सुन मनुष तिर्यक नारकी हुइ ऊर्ध्व मध्य अधोधरा ॥१०॥ अनंतकाल निगोद अटका निकस थावर तनधरा । भूवारितेजबयार व्हैकै । बेइँद्रिय त्रस अवतरा ॥ फिर हो तिइन्द्री वा चौइन्द्री पंचद्री ।
मनविन बना । मनयुत मनुषगतिहीन दुर्लभ ज्ञान अति * दुर्लभ घना ॥११॥ जिय ! न्हान धोना तीर्थ जाना धर्म
नाहीं जपजपा । तननग्न रहना धर्म नाही धर्म नाहीं तप१. तपा ॥ वर धर्म निज आतम स्वभावी ताहि विन सब। निष्फला । बुधजन धरम निज धार लीना तिनहिं कीना।
सब भला। दोहा-अथिराशरणसंसार है, एकत्वअनित्यहि * जान । अशुचि आस्रव संवरा, निर्जर लोक बखान ।। बोध
रु दुर्लभ धरम ये, बारह भावन जान । इनको भावै जो सदा क्यों न लहै निवीन ॥१४॥