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________________ १RKSHER १११२ बृहज्जैनवाणीसग्रह * कंचनवरन पवित्र ॥ तुमतनशोभित किरनचिथार । ज्यों। • उदयाचल रवितमहार ॥ २१॥ कुंदपुहुपसितचमर दुरंत ।। * कनकवरन तुमतन शोभंत ॥ ज्यों सुमेरुतट निर्मल कांति।। । झरना झरै नीर उमगाँति ॥३०॥ उंचे रहै सूर दुति लोप।। * तीन छत्र तुम दिएँ अगोप । तीन लोककी प्रभुता कहैं। मोती झालरसों छवि लहैं ।। ३१ ॥ दुन्दुमि शब्द गहर गम्भीर।। १ चहुँदिशि होय तुम्हारै धीर । त्रिभुवनम्न शिवसंगम करै।। मानूँ जय जय रख उच्चरै ॥ ३२ ॥ मंद पवन गंधोदक इष्ट ।। विविध कलपतरु पुहुपसुट ॥ देव करै विकसित दल सार।। * मानों द्विजपंकति अवतार ॥३३॥ तुमतन-भामण्डल जिन* चंद । सब दुलिवंत करत है मंद ॥ कोटिशख रवितेज छि पाय । शशिनिमलनिशि करै अछाय ॥३१॥ स्वगमोखमा रगसंकेत । परमधरम उपदेशनहेत ॥ दिव्य वचन तुम सिरें । । अगाध । सब भाषागर्भित हितसाध ॥ ३५॥ * दोहा-विकसितसुवरनकमलदुति, नखदुति मिलि चमकाहिं ।। तुमपद पदवी जहँ धरो, तहँ सुर कमल रचाहि ॥३६॥ एसी महिमा तुमविपै, और धरै नहिं कोय। सूरज में जो जोत है, नहिं तारागण होय ॥ ३७॥ 1 षट्पद-मदअवलिप्तकपोल-मूल अलिकुल झंकारें । तिन । सुन शब्द प्रचंड क्रोध उद्धतअतिधार ॥ कालवरन विकराल, * कालवत सनमुख आवै । ऐरावत सो प्रबल, सकल जन भय। * उपजावै ॥ देखि गयंद न भय करै तुम पदमहिमा छीन।। ३
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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