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________________ AAAAAAAAAAAAAAAAAR वृहज्जैनवाणीसंग्रह ११३ । विपतिरहित संपतिसहित, वरतै भक्त अदीन ॥ ३८॥ अति । मदमत्तगयंद कुंभथल नखन विदार। मोती रक्त समेत डारि । भूतल सिंगार। वांकी दाढ विशाल, वदनमें रसना लोले।। भीमभयानकरूप देखि जन थरहर डोलै । ऐसे मृगपति * पगतलैं, जो नर आयो होय । शरण गये तुम चरणकी, बाधा करै न सोय ॥ ३९॥ मलयपवनकर उठी आग जो तास . पटतर । मैं फुलिंग शिखा उतंग परजलै निरंतर ॥ जगत समस्त निगल्ल भस्मकर हैगी मानों । तड़तडाट दक्अनल, जोर चहुंदिशा उठानों । सो इक छिनमें उपशमें, नामनीर * तुम लेत । होय सरोवर परिनमै विकसित कमल समेत ॥ ॥४०॥ कोकिलकंठसमान. श्याम तन क्रोध जलंता । रक्त१. नयन फुकार, मारविषकण उगलन्ता ॥ फणको ऊंचो करै । वेग ही सन्मुख धाया । तब जन होय निशंक, देख कणपतिको आया॥जो चांपै निज पगतलैं, व्यापै विष न लगा-1 र । नागदमनि तुम नामकी है, जिनके आधार ॥४१॥ ६ जिस रनमांहिं भयानक रखकर रहे तुरंगम । घनसे गज । गरजाहिं मत्त मानों गिरि जंगम ॥ अति कोलाहलमाहिं वात । जहँ नाहिं सुनीजै । राजनको परचन्ड, देख बल धीरज । छीजै ॥ नाथ तिहारे नामतै सो छिनमाहिं पलाय । ज्यों। * दिनकर परकाशर्ते अंधकार विनशाय ॥ ४२ ॥ मारै । जहां गयद कुंभ हथियार विदारै। उमगै रुधिर प्रवाह वेग जलसम विस्तारै ॥ होय तिरन असमर्थ महा।
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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