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________________ Vuuuuuuuuuuuu MVON. । ११४ हज्जैनवाणीसंग्रह जोधा बलपूरे। तिस रनमें जिन तोर भक्त जे हैं नर सूरे।। • दुर्जय अरिकुल जीतके, जय पावै निकलंक। तुम पदपंकज । मन वस ते नर सदा निशंक ॥ ४४ ॥ नक्र चक्र मगरादि । मच्छकरि भय उपजावै । जामैं बडा अग्निदाहत नीर * जलावै ॥ पार न पावै जास थाह नहिं लहिये जाकी। गरजै अतिगंभीर, लहरकी गिनति न ताकी ॥ सुखसों तरें । * समुद्रको, जे तुमगुनसुमराहिं । लोलकलोलनके शिखर, पार । । यान ले जाहिं ॥ १४ ॥ महाजलोदर रोग, भार. पीडित नर जे हैं। वात पित्त कफ कुष्ठ आदि जो रोग गहे हैं॥ । सोचत रहैं उदास नाहिं जीवनकी आशा। अति घिनावनी देह, धरै दुर्गधि निवासा ।। तुम पदपंकजधूलको, जो लावै निज अंग । ते नीरोग शरीर लहि, छिनमें होय । अनंग ॥ ४५ ॥ पांव कंठ जकर बांध सांकल अति भारी। गाढ़ी वेडी पैरमाहिं, जिन जांध विदारी ॥ भूख प्यास । चिंता शरीर दुख जे विललाने । सरन नाहिं जिन कोय। भूपके बंदीखाने ॥ तुम सुमरत स्वयमेव ही बंधन सब । खुल जाहिं । छिनमें ते संपति लहैं, चिंता भय विनसाहिं । ॥१६॥ महामत्त गजराज और मृगराज दवानल। फण। पति रणपरचन्ड नीरनिधि रोग महावल । बन्धन ये भय ! आठ डरपकर मानों नाशै । तुम सुमरत छिनमाहिं अभय कथानक परकाशै ॥ इस अपार संसारमें शरन नाहिं प्रभु कोय । यात तुम पदभक्तको भक्ति सहाई होय ॥४७॥
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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