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________________ ANARARANAGARAARA RAAAAAA बृहज्जैनवाणीसग्रह १११ । र देख वीतराग तू पिछानिया ।। कछु न तोहिं देखके जहां तुही विशेखिया । मनोग चित्तचोर और भूलहू न पेखिया ॥२१॥ * अनेक पुत्रवंतिनी नितंविनी सपूत हैं। न तो समान पुत्र और मातः प्रसूत हैं ।। दिशा धरंत तारिका अनेक कोटि को। गिनै दिनेश तेजवंत एक पूर्व ही दिशा जनै ॥ २२॥ पुरान * हो पुमान हो पुनीत पुन्यवान हो । कहैं मुनीश अधकारनाशको सुभान हो ॥ महंत तोहि जानके न होय वश्य कालके। न और मोहि मोखपंथ देय तोहि टालके ।। २३॥ अनंत नित्य चित्तकी अगम्य रम्य आदि हो । असंख्य सर्व । व्यापि विष्णु ब्रह्म हो अनादि हो ।। महेश कामकेतु योग ईश। योग ज्ञान हो । अनेक एक ज्ञानरूप शुद्ध संतमान हो॥२४॥ तुही जिनेश बुद्ध है सुबुद्धिके प्रमान । तुही जिनेश शंकरो । जगत्त्रये विधानतै । तुही विधात है सही सुमोखपंथ भारत। नरोत्तमो तुही प्रसिद्ध अर्थके विचारतें ॥ २५॥ नमों करूँ । * जिनेश तोहि आपदा निवार हो । नमो करूँ सुभूरि भूमि लोकके सिंगार हो ॥ नमो करूँ भवाब्धिनीरराशिशोषहेतु हो । नमो करूँ महेश सोहि मोखपंथ देतु हो ॥ २६ ॥ * चौपाई-तुम जिन पूरनगुनगन भरे। दोष गर्वकरि तुम परिहरे ॥ और देवगण आश्रय पाय । स्वप्न न देखे तुम फिर । * आय ॥ तरुअशोकतर किरन उदार । तुमतन शोभित है * अविकार ।। मेघ निकट ज्यों तेज फुरंत । दिनकर दिष तिमिर* निहनंत ॥ २८॥ सिंहासन मनिकिरन विचित्र । तापर। * RKKK- SKRK *
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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