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। ११० वृहज्जैनवाणीसंग्रह
सोय ॥को करि छीरजलधिजलपान । क्षारनीर पीवै मति* मान ॥ ११ ॥ प्रभु तुम वीतराग गुनलीन । जिन परमानु ।
देह तुम कीन ॥ हैं तितने ही ते परमानु । यात तुम सम । । रूप न आनु ॥ १२ ॥ कहँ तुम मुख अनुपम अविकार ।।
सुरनरनागनयनमनहार । कहां चंद्रमंडल सकलंक । दिनमें ढाकपत्र सम रंक ॥ १३॥ पूरनचंद जोति छविवंत । तुमगुन तीनजगत लंधत ॥ एक नाथ त्रिभुवन आधार। तिन । विचरतको करै निवार ॥१४॥ जो सुरतिय विग्रम आरंभ ।।
मन न डिग्यो तुम तौ न अचभ ।। अचल चलावै प्रलय * समीर । मेरुशिखर डगमगै न धीर ॥ १५ ॥ धूमरहित
वाती गतनेह । परकाशै त्रिभुवन घर एह ॥ वातगम्य नाहीं । परचंड । अपर दीप तुम बलो अखंड ॥ १६॥ छिपहु न । लुपहु राहुकी छाहिं । जगपरकाशक हो छिनमाहिं । धन अनवर्त दाह विनिवार । रवित अधिक धरो गुणसार॥१०॥ सदा उदित विदलित मनमोह । विघटित मेघराहु अविरोह॥ । * तुम मुखकमल अपूरव चंद । जगतविकाशी जोति अमं॥१८॥ निश दिन शशि रविको नहिं काम । तुम मुखचंद हरै तमधाम ॥ जो स्वभावतै उपजै नाज । सजल मेघ तो कौनहु ।
काज ॥ १९ ॥ जो सुबोध सोहै तुममाहिं । हरि हर आदि। * कमें सो नाहि ॥ जो दुति महारतनमें होय । काचखंड पावै ।
नहिं सोय ॥२०॥ नाराच छंद. सराग देव देख मै भला विशेष मानिया । स्वरूप जाहि ।