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________________ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwvvvvvvvvvi * - *- *-* * वृहज्जैनवाणीसंग्रह २१७ ५ गरीबकी बीनती, सुन लीज्यो भगवान ॥ पूजन करते में देवकी, आदिमध्य अवसान । सुरगनके सुख भोगकर, पावै मोक्ष निदान ।। १९॥ जैसी महिमा तुम विषै, और धरै नहिं कोय | जो सूरजमें जोति है, तारनमें नहिं सोय *॥२०॥ नाथ तिहारे नामतै, अघ छिनमाहिं पलाय। ज्यों दिनकर परकाशतै, अंधकार विनशाय ॥ २१ ॥ बहुत प्रशंसा क्या करूं मैं प्रभु बहुत अजानं । पूजाविधि जान्यो * नहीं, सरन राखि भगवान ।। २२ ॥ इति समाप्तं ॥ पंचम अध्याय। पर्वपूजा-संग्रह। ९६-देवपूजा भाषा। दोहा-प्रभु तुम राजा जगतके, हमें देय दुख मोह । तुम-पद-पूजा करत हूं, हमपै करुणा होहि ॥१॥ ओं ही अष्टादशदोषरहितषट्चत्वारिंशद्गुणसहित श्रीजिनेन्द्रभगवन् ! अत्र अवतर अवतर । संवौषट् । ओ. ह्रीं अष्टादशदोषरहितपट- से * चत्वारिंशद्गुणसहित श्रीजिनेन्द्रभगवन् ! अन तिष्ठ तिष्ठ 1. ठः ।। मों ही अष्टादशदोषरहित षट्चत्वारिंशद्गुणसहित श्रीजिनेन्द्रभगवन् ! * अत्र मम सन्निहतो भव भव। वषट् । बहु तृषा सतायो, अति दुख पायो, तुमपै आयोजल लायो।। * -*-*-* 5225- *
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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