SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 173
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ NAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA वृहज्जैनवाणीसंग्रह रमणी वरी ॥७॥ कन्दर्प दर्प सुसर्पलच्छन, कमठ शठ निर्मद कियो । अश्वसेननन्दन जगतवंदन सकलसँग मंगल कियो । ८ ॥ जिन धरी वालकपणे दीक्षा, कमठमानवि दारकै । श्रीपार्श्वनाथ जिनेद्रके पद, मैं नमों शिरधारके ॥९॥ * तुम कर्मघाता मोक्षदाता, दीन जानि दया करो । सिद्धाकथनंदन जगत वंदन, महावीर जिनेश्वरो॥ १० ॥ छत्र तीन सोहैं सुरनर मोहैं, वीनती अवधारिये । करजोड़ि। सेवक बीनवै प्रभु आवागमन निवारिये ॥ ११ अब होउ * भवभव स्वामि मेरे, मैं सदासेवक रहों। करजोड़ यों वरदान मांगू, मोक्षफल जावत लहों ॥१२॥ जो एक माहीं एक राजत एकमाहिं अनेकनो । इक अनेककि नहीं संख्या नयूँ सिद्ध निरंजनो ॥१३॥ * चौ०- मैं तुम चरण कमलगुण गाय । बहुविधि भक्ति करी मनलाय ॥ जनम जनम प्रभु पाऊँ तोहि । यह सेवा१ फल दीजे मोहि ॥ १४ ॥ कृपा तिहारी ऐसी होय। जामन मरन मिटावो मोय ॥ बार बार मैं विनती करूँ | तुम सेयां भवसागर तरूँ॥ १५॥ नाम लेत सब दुख मिट जाय । तुमदर्शन देख्यां प्रभु आय ॥ तुम हो प्रभु देवनके । ॐ देव । मै तो करूँ चरण तव सेव ॥ १६॥ मै आयो पूजनके । * काज । मेरो जन्म सफल भयो आज । पूजाकरके नवाऊं, शीश । मुझ अपराध छमहु जगदीश ॥ १७॥ दोहा-सुखदेना दुख मेटना, यही तुम्हारी वान । मो.
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy