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________________ बृहज्जैनवाणीसंग्रह ३३ - भागचन्द्रकृत स्तुति (२) हरिगीतिका (२८ मात्रा ) तुम परमपावन देव जिन अरि, रजरहस्य विनाशनं । तुम ज्ञान- हग जलवीच त्रिभुवन, कमलपत प्रतिभासनं ॥ आनंद निजज अनंत अन्य अचिंत संतत परनये । बल अतुलकलित स्वभावतै नहिं, खलितगुन अमिलित थये ॥ सब रागरुषहन परम श्रवन, स्वभाव घननिर्मल दशा || इच्छारहित भविहित खिरत वच, सुनतही भ्रमतमनशा । एकांतगहनसुदहन स्यात्पद, वहनमय निज परदया । जाके प्रसाद विषाद विन, मुनिजन सपदि शिवपद लहा ॥ २ ॥ भूषनत्रसनसुमनादिविनतन, ध्यानमयमुद्रा दिपै । नासाग्रनयन सुपलक हलय न, तेज लखि खगगन छिपै ॥ पुनि वदननिरखत प्रशमजल, वरखत सुहरखतउर धरा । बुधि स्वपर परखत पुन्य आकर, कलिकलिल दरखत जरा ||३|| इत्यादि बहिरंतर असाधारन, सुविभव निधान जी । इंद्रादिवंदपदारविंद, अनिंद तुम भगवान जी | मैं चिरदुखी परचाहतें, तपधर्म नियत न उर धरयो || परदेव सेव करी बहुत, नहि काज एकहु तहँ सरयो || ४ || अब (भागचंद ) उदय भयौ मैं, शरन आयो तुम-तनी | इक दीजिये बरदान तुम जस, स्वपददायक बुधमनी ॥ परमाहिं इष्ट-अनिष्टमति-तजि, मगन निजगुनमें रहीं। हग-ज्ञान- चरन समस्त पाऊं, भागचंद, न पर चहौं ॥ ५ ॥ 6-4-46-4742-----
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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