SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 280
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ *AMARKESARKE ___ वृहज्जैनवाणीसंग्रह ३६१ । १४२-चार अनंतचतुष्टय । र १ अनन्तज्ञान २ अनन्तदर्शन ३ अनन्तसुख ४ अनन्तवीर्य ।। १४३-चार घातिया कर्म। १ ज्ञानावर्णकर्म २ दर्शनावर्णकर्म ३ मोहनीय कर्म ४ अंत* रायकर्म। १४-समवशरणकी ११ भूमियां। १ चैत्यभूमि २ खातिभूमि ३ लताभूमि ४ उपवनभूमि। 1 ५ ध्वजाभूमि ६ कल्पांगभूमि ७ गृहभूमि ८ सद्गणभूमि * ९-११ तथा तीन पीठिका, ऐसे ११ भूमि हैं। १४५-समवशरणकी १२ सभाएँ। १ पहली सभा गणधरादि मुनिजन २ दूसरी सभामें, कल्पवासी देवियां ३ तीसरी समामें आर्यिकाएं ओर मनुव्यनी ४ चौथी सभामें भवनवासिनी देवियां ५ पांचवीं । सभामें व्यन्तरणी देवियां ६ छठी सभामें ज्योतिष्क देवियां १७ सातवीं सभामें अपने अपने इन्द्रोंके साथ कल्पवासी देव । * ८ आठवीं सभामे भवनवासी देव ९ नवमी सभामें व्यन्तर देव १० दशवीं सभामें ज्योतिष्क देव ११ ग्यारहवीं सभामें मनुष्य १२ बारहवीं सभामें पशु ऐसे १२ सभा हैं। । १४६-अठारह दोषी क्षुधा २ तृषा ३ जन्म ४ जरा ५ मरण ६ रोग। ** - - -- - - - -
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy