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________________ ४६८ वृहज्जैनवाणीसंग्रह AAAAAAAA AAAAAAAAAAAAAAnnnn Jinnnnn वचन रसाला ||दीठा ॥३॥ लखि जाकी छवि आतमनिधि-निज, पावत होत निहाला दीठा० ॥४॥ दौल जासगुन चिंततरत है, निकट विकट भवनाला ॥ दीठा ॥५॥ __ थारै तो बैनामैं सरधान घणो छै म्हारै, छवि निरखत • हिय सरसावै । तुम धुनिधन परचहनदहनहर, वरसमता रसझर बरसावै ॥ थोरै तो० ॥१॥ रूप निहारत ही बुध है । सो निजपर चिह्न जुदे दरसावै । मैं चिदंक अकलंक अमल। * थिर, इंद्रिय-सुख-दुख-जड फरसावै ॥ थारै तो० ॥२॥ ज्ञानविरागसुगुनतुम-तनकी, प्रापतिहित सुरपति तरसावै । मुनि बडभाग लीन तिनमै नित, दौल घवल-उपयोग रमाचे । थारै तो॥३॥ __ आज मैं परम पदारथ पायो, प्रभुचरनन चित लायो । आज मैं० ॥ टेक ॥ अशुभ गये शुभ प्रगट भये हैं, सहज कल्पतरु छायो आज०॥१॥ ज्ञान शक्ति तप ऐसी जाकी, । चेतन-पद दरसायो ।आज मैं० ॥२॥ अष्ट कर्मरिपु जोधा जीते, शिवअंकूर जमायो । आज० ॥३॥ ( २६८ ) । नेमिप्रभूकी श्यामवरन छवि, नैनन छाय रही । नेमि० १॥टेक ॥ मणिमय तीन पीठपर अंबुज, तापर अधर, ठही ॥ नेमि० ॥ १ ॥ मार मार तप धार जार विधि, केवलरिद्धि । लही । चार तीस अतिशय दुति-मंडित, नवदुगदोष नहीं ॥ KR -5-5KKR *
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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