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बृहज्जैनवाणीसंग्रह ५१-अथ भूधरकृत गुरुस्तुति । . बंदौं दिगंबर गुरुचरन जुग, तरनतारन जान । जे भरम • भारी रोगको हैं,राजवैद्य महान ॥ जिनके अनुग्रह विन कभी,
नहिं कटै कर्मजंजीर । ते साधु मेरे उर बसहु, मम हरहु । * पातक पीर ॥१॥ यह तन अपावन अथिर है, संसार सकल ।
असार । ये भोग विषपकवानसे, इहभांति सोच विचार ॥ । तप विरचि श्रीमुनि वनवसे सब छोड़ि परिगह भीर । ते ।
साधु० ॥२॥ जे काच कंचनसम गिनहि, अरि मित्र एक
सरूप । निंदा बड़ाई सारिखी, वनखंड शहर अनूप ।। सुख * दुःख जीवनमरनमें, नहिं खुशी नहिं दिलगीर ।। ते साधु०॥
॥३॥ जे बाह्य परवत वनबसैं, गिरिगुफा महल मनोग । सिल सेज समता सहचरी, शशिकिरनदीपक जोग ॥ मृग। मित्र भोजन तपमई, विज्ञान निरमल नीर । ते साधु० ॥6॥
सूखहिं सरोवर जल भरे, सूखहिं तरंगिनि-तोय। बाटहि । * बटोही ना चलै, जहँ धाम गरमी होय ॥ तिहँकाल मुनिवर * तप तपहिं, गिरिशिखर ठाड़े धीर ॥ ते साधु०॥५॥ घनघोर ।
गरजहिं धनघटा, जलपरहिं पावसकाल। चहुँ ओर चम
कहि बीजुरी, अति चलै सीरी व्याल ॥ तरुहेठ तिष्ठहिं तब * जती, एकान्त अचल शरीर।। ते साधु० ॥ ६ ॥ जब शीत* मास तुषारसों, दाहै सकल वनराय । तब जमै पानी पोखरां । * थरहरै सबकी काय ॥ तब नगन निवसै चौहटै, अथवा
नदीके तीर ॥ ते साधु० ॥७॥ करजोर 'भूधर' बीनवै, कब