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________________ वृहज्जैनवाणीसंग्रह मिलहिं वे मुनिराज । यह आश मनकी कब फलै, मम * सरहिं सगरे काज ।। संसार विषम विदेसमें, जे विना कारण वीर ॥ ते साधु० ॥८॥ - ५२-भूधरकृत गुरुस्तुति । ते गुरु मेरे मन वसौ, जे भव- जलधि-जिहाज । आप तिरै पर तारहीं, ऐसे श्रीऋषिराज ॥ ते गुरु ० ॥ मोह महारिषु जीतिकै छाडयो सब घरबार । होय दिगम्बर वन बसे, आतम शुद्ध विचार ॥ ते गुरु० ॥ रोगउरग बिल वपु! गिण्यौ, भोग भुजंग समान । कदलीतरु संसार है, त्यागो। सब यह जान ॥ ते गुरु० ॥ रतनत्रय निधि उर धरै, अरु निरग्रन्थ त्रिकाल। मारयौ कामखबीसको, स्वामी परम । दयाल ॥ ते गुरु० ॥ पंच महाव्रत आदरै, पांचौं सुमति ।। समेत । तीन गुपति पालैं सदा, अरजअमरपद हेत! ॥ते गुरु० ॥ धर्म धरै दशलक्षणी, भावै भावन सार । सहैं। * परीषह वीस द्वै, चारित-रतन भँडार ॥ ते गुरु० ॥ जेठ । तपै रवि आकरौ, सूखै सरवरनीर । शैलशिखर मुनि तप तपै, दाहै नगन शरीर ॥ ते गुरु० ॥ पावस रैन डरावनी, बरसै जलधर धार । तरुतल निवसै साहसी, बाजै झंझावार॥ ते गुरु० ॥ शीत पडै कपि-मद गलै, दाहै सब वनराय । * ताल तरंगिनिके तटै, ठाडे ध्यान लगाय ॥ ते गुरु० ॥ इहि विधि दुद्धर तप तपै, तीनों काल मंझार। लागे सहज सरूपमें, तनसौ ममत निवार ॥ ते गुरु०॥ पूरब भोग न ---- --- -- - - ---
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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