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________________ * K KAKK56 * AAAAAAAAAAAAAAAAAAA MKARAAAAAAAAA - - ७२ बृहज्जैनवाणीसंग्रह चित, आगम बांछा नाहिं । चंहु गतिकै दुखसौं डरे, । सुरत लगी शिवमाहिं ॥ ते गुरु०॥ रंगमहलमें पोढते, कोमल सेज विछाय । ते पच्छिम निशि भूमिमें, सो संवरि । काय ॥ ते गुरु० ॥ गज चढि चलते गरबसौ, सेना सजि * चतुरंग । निरखि निरखि पग ते धरै, पालें करुणा अंगा। ते । गुरु० ॥ वे गुरु चरण जहां धरै, जगमें तीरथ जेह । सो रज में मम मस्तक चढौं, 'भूधर' मांगे येह ॥ते गुरु० ॥ : ५३-प्रातःकालकी स्तुति। . । वीतराग सर्वज्ञ हितंकर भविजनकी अब पूरो आस॥ * ज्ञानभानुका उदय करो मम मिथ्यातमका होय विनाश ॥१॥ जीवोंकी हम करुणा पाले झूठ वचन नहिं कहैं कदा॥ परधन कबहु न हरिहैं स्वामी ब्रह्मचर्य व्रत रहै सदा ॥२॥ तृष्णा लोभ बढ़े न हमारा तोष सुधा निधि पिया करें ॥श्री ! जिनधर्म हमारा प्यारा तिसकी सेवा किया करें ॥३॥ * दूर भगावै बुरी रीतियां सुखद रीतिका करै प्रचार ॥ मेल। मिलाप बढ़ावै हम सब धर्मोन्नतिका करै प्रचार ॥ ४ ॥ सुखदुखमें हम समता धारै रहें अचल जिमि सदा अटल॥ न्याय । कार्यको लेश न त्यागें वृद्धि कर निज आतमवल ॥ ५॥ अष्टकर्म जो दुःखहेतु हैं तिनके छयका करें उपाय ॥ नाम । * आपका जपै निरन्तर विघ्नशोक सब ही टल जाय ॥६॥ आतम शुद्ध हमारा होवे पाप मैल नहिं चढ़े कदा। विद्याकी हो उन्नति हममें धर्म ज्ञानहूँ वढ़े सदा ॥ ७॥ हाथ जोड़।
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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