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________________ ------ वृहज्जैनवाणीसंग्रह * अब होऊ भव भव भक्ति तुम्हरी, कृपा ऐसी कीजिये । कर जोर भूधरदास विनवै, यही वर मोहि दीजिये ॥४॥ ३६-दुःखहरण विनती (शेरको रीतिमें तथा और और रागगिनियोंमें भी बनती है)। श्रीपति जिनवर करुणायतनं, दुखहरन तुमारा वाना है। मत मेरी बार अबार करो, गेहि देहु विमल कल्याना है ॥ टेक ॥ त्रैकालिक वस्तु प्रत्यक्ष लखो, तुमसौ कछु। * बात न छाना है । मेरे उर आरत जो वरतै, निहचै सब सो * तुम जाना है ।। अवलोक विथा मत मौन गहो, नहिं मेरा कहीं ठिकाना है। हो राजिवलोचन सोचविमोचन, मैं * तुमसौ हित ठाना है। श्री० ॥ १ ॥ सब ग्रन्थनिमें निरग्रं थनिने, निरधार यही गणधार कही । जिननायक ही सब लायक हैं, सुखदायक छायक ज्ञानमही ॥ यह बात हमारे कान परी, तब आन तुमारी सरन गही। क्यों मेरी बार *विलंब करो, जिननाथ कहो वह बात सही ॥ श्री० ॥२॥ काहूको भोग मनोग करो, काहूको स्वर्गविमाना है ।काहूको नागनरेशपती, काहूको ऋद्धि निधाना है ॥ अब मोपर। क्यों न कृपा करते, यह क्या अंधेर जमाना है । इनसाफ करो मत देर करो, सुखवृन्द भरो भगवाना है ॥ श्री० * ॥३॥ खल कर्म मुझे हैरान किया, तब तुमसों आन पुकारा है। तुम ही समरस्थ न न्याव करो, तब वंदेका क्या चारा * है। खल घालक पालक बालकका नृपनीति यही जगसारा। KRAK -45-5-RRRRRRY
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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