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________________ vvvvvvvvvvvuv Uvuvu ३६८ बृहज्जैनवाणीसंग्रह पैनिजातमज्ञान विना सुख लेश न पासो ॥५॥ तात . जिनवरकथित, तत्त्व अभ्यास करीजै । संशय विश्रम मोह, त्याग आपो लखि लीजै ॥ यह मानुषपरजाय, सुकुल सुनियो जिनवानी । इहविधि गये न मिले, सुमणि ज्यों उद-1 घिसमानी ॥६॥ धन समाज गन बाज राज, तो काज न आवै। ज्ञान आपको रूप भये फिर अचल रहावै।। * तास ज्ञानको कारन, स्वपरविवेक वखान्यो । कोटि । उपाय बनाय, भव्य ताको उर आन्यो ॥७॥ जे पूरव शिवगये, जांय अब आगें जै हैं । सो सब महिमा ज्ञानतनी, * मुनिनाथ कहै हैं । विषयचाह-दव-दाह, जगतजन अरनि । * दझावै । तासु उपाय न आन ज्ञानधनधान वुझावै ॥८ * पुण्यपाप-फल माहि, हरख बिलखौ मत भाई । यह पुद्गल । परजाय, उपजि विनसैं थिर थाई ॥ लाख वातकी वात, । यहै निश्चय उर लावो॥तोरि सकल जगदंदफंद, निज आतम * ध्यावो ॥९॥ सम्यकज्ञानी होइ, बहुरि दृढ चारित लीजै ।। एकदेश अरु सकलदेश, तस भेद कहीजै ॥ त्रसहिंसाको * त्याग वृथा, थावर न सँघारै । परवधकार कठोर निंद्य नहिं । *वयन उचारै ॥१०॥ जल मृतिका विन और नाहिं कछु । गहै अदत्ता । निज बनिताविन सकल, नारिसौं रहै विरता। * अपनी शक्ति विचार परिग्रह थोरो राखै । दश दिशि गमन प्रमान, ठान तसु सीम न नाखै ॥११॥ तामें फिर प्राम। गली गृह बाग बजारा। गमनागमन' प्रमान ठान अन ।
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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