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________________ 172 वृहज्जैनवाणीसंग्रह ३६७ प्रथम नरक विन षटभू ज्योतिष, वान भवन पँड नारी ।' 'थावर विकलत्रय पशु नहि, उपजत समकितधारी ॥ तीनलोक तिहुँ कालमाहिं नहि, दर्शनसमं सुखकारी | सकल धरमको मूल यही इस, विन करनी दुखकारी ॥ १६ ॥ मोक्षमहलकी परथम सीढी, या विन ज्ञान चरित्रा । सम्यकता न लहै सो दर्शन, धारों भव्य पवित्रा । 'दौल' समझ सुन चेत सयाने, काल वृथा मत खोवै । यह नरभव फिर 1 मिलन कठिन हैं, जो सम्यक नहि होवै ॥ १७॥ चौथी ढाल | दोहा - सम्यक श्रद्धा धारि पुनि, सेवहु सम्यकज्ञान । स्वपर अर्थ बहु धर्मजुत, जो प्रकटावन भान ॥१॥ रोला छंद - सम्यकसाथै ज्ञान होय, पै भिन्न अराघो । लक्षण श्रद्धा जान, दुहूमें भेद अवाधो ॥ सम्यककारण जान, ज्ञान कारज है सोई । युगपद होतें हू, प्रकाश दीपकतें होई ॥१॥ तास मेद दो हैं परोक्ष, परत तिनमाहीं । मति श्रुत दोय परोक्ष, अक्ष मनतैं उपजाहीं ॥ अवधिज्ञानमनपर्जय, दो हैं देशप्रतच्छा | द्रव्यक्षेत्रपरिमान लिये जानें जिय स्वच्छा || सकल द्रव्यके गुन अनंत, परजाय अनंता । जानैं एकै काल, प्रगट केवलिभगवंता । ज्ञान समान न आन, जगतमें सुखको कारन । इह परमामृत जन्म, जरामृतरोग, निवारन ॥ कोटि जनम' तप तपै, ज्ञान विन कर्म झरें जे। ज्ञानीके छिनमांहि गुप्तितैं सहज टरें ते । मुनिव्रत धार अनंत बार, ग्रीवक उपजायो । 7 "/
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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