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________________ ३६६ वृहज्जैनवाणीसंग्रह • अवस्था, सो शिव थिरसुखकारी । इहिविधि जो सरधा तच्चनकी, सो समकित व्योहारी ॥ देव जितेंद्र गुरू परिग्रह विन, धर्म दयाजुत सारो । यहू मान समकितको कारन, अष्ट अंगजुत घारों ||१०|| सुमद टारि निवारि त्रिशठता, षट अनायतन त्यागो | शंकादिक वसुदोष विना, संवगोदिकचित पागो । अष्ट अंग अरु दोष पचीसों, अब संक्षेपहु कहिये बिन जाने दोष गुननको, कैसे तजिये गहिये ||११|| जिनवचमैं शंका न धारि वृष, भवसुखवांछा भानै । मुनितन मलिन न देख घिनावै, तत्व कुतन्त्र पिछानै । निजगुन अर पर अवगुन ढाकै वाजिनधर्म बढावै । कामादिककर वृषतें चिगते, निजपरको सु दृढावै ॥ धर्मासों गउवच्छमीतिसम, कर जिनधर्म दिपावै । इन गुनतै विपरीत दोष वसु, तिनको सतत खिपावै ॥ पिता भूप वा मातुल नृप जो, होय तो न मद ठानै । मद न रूपको मद न ज्ञानको धन बलको मद भानै ॥ १३ ॥ तपको मद न मद जु प्रभुताको, करै न सो निज जानै । मद धारै हि दोष वसु, समतिको मल ठानै ॥ कुगुरुकुदेवकुवृषसेवककी नहि प्रशंस उचरै है । जिनमुनि जिनश्रुत चिन कुगुरादिक तिन्हें न नमन करे है || १४ || दोषरहित गुनसहित सुधी जे, सम्यकंदरश सजे हैं। चरितमोहवश लेश न संजम मैं सुरनाथ जजे हैं || गेहीपै गृहमें न रचै ज्यों, जलमें भिन्न कमल है | नगरनारिको प्यार यथा, कादेमें हेम अमल है ।
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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