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वृहज्जैनवाणीसंग्रह ३६५ । ॥३॥ बहिरातम अंतरआतम परमातम जीव त्रिधा है । देह । जीवको एक गिनै, बहिरातमतत्व मुधा है ॥ उत्तम मध्यम । * जघन त्रिविधिके अंतरआतमज्ञानी। द्विविध संगविन शुधउपयोगी, मुनि उत्तम निजध्यानी॥ मध्यम अंतर आतम!
जे, देशव्रती आगारी । जघन कहे अविरतसमदृष्टी तीनों शिवमगचारी ॥ सकल निकल परमातम द्वैविध तिनमें घातिक निवारी । श्रीअरहंत सकल परमातम लोकालोकनिहारी ।५। ज्ञानशरीरी त्रिविध कर्ममल-वर्जित सिद्ध महंता। ते हैं । निकल अमल परमातम, भोगें शर्म अनंता ।। बहिरातमता। । हेय जानि तजि,अंतरआतम हजै । परमातमको ध्याय निर
तर, जो नित आनँद पूजै ॥६॥ चेतनता विन सो अजीव । हैं, पंच भेद ताके हैं। पुदगल पंच वरन, रसपन गंध, दु ।
फरस बसु जाके हैं ॥ जिय पुद्गलको चलन सहाई, धर्मद्रव्य अनरूपी । तिष्ठत होय अधर्म सहाई, जिन विनमूर्ति । निरूपी ॥७॥ सकल द्रव्यको वास जासमैं, सो अकाश पि
छानों । नियत वरतना निशिदिन सो व्यवहारकाल परि* मानो । यौँ अजीव अब आस्रव सुनिये, मनवचकाय त्रियो
गा। मिथ्या अविरत अरु कषायपरमादसहित उपयोगा। । ये ही आतमके दुखकारन, तातै इनको तजिये। जीवपदेश ! बँधे विधिसों सो.बंधन कबहुं न सजिये ॥ शमदमसों जो कर्म न आवै, सो संवर आदरिये । तपबलतै विधिझरन निरजरा, ताहि सदा आचरिये ॥९॥ सकल करमत रहित ।
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